Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२७६ के द्वारा उनका विधान करने का कारण बतलाते हुए मूलाचार में लिखा है कि-प्रथम तीर्थङ्करके शिष्य सरल स्वभावी किन्तु जड़. बुद्धि थे। बारम्बार समझाने पर भी शास्त्रका मर्म नहीं समझ पाते थे और अन्तिथ तीर्थङ्कर के शिष्य कुटिल और जड़मति थे। अतः वे योग्य-अयोग्यको नहीं समझते थे। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके शिष्य हद बुद्धि, एकाग्रमन और प्रेक्षापूर्वकारी होते थे। इसीलिये उनके नियमों में अन्तर था।
उत्तराध्ययन में भी गौतमने पार्श्व और महावीरके धर्ममें उक्त अन्तर होनेका कारण उनकी शिष्य परम्पराकी प्रवृत्ति
और मानसको ही बतलाया है। सारांश यह है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके निप्रन्थ सरलमति और समझदार होते थे, इसलिये अधिक विस्तार न करने पर भी वे यथार्थ आशयको समझ कर ठीक रीतिसे व्रतका पालन करते थे। किन्तु महावीरकी परम्पराके निम्रन्थ कुटिल और नासमझ थे। इसलिये महावीर
१-'आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुठु दुरणुपाले य ।
पुरिमा पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ३८ ॥ मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोह लक्खा य । तुम्हा हु जमाचरंति तं गरहंतावि सुज्झति ॥ १३२ ॥
-मूला०, ७ अ०। २-'पुरिमा उज्जुजडा उ वक्कजढा य पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जुप्पन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ।। २६ ॥ पुरिमाणं दुन्विसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालश्रो। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झो सुपालश्रो ॥ २७ ॥
-उत्तरा०, २३ अ०।
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