Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२७३ हुए थे । महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करने पर उनके प्रधान गणधर पद पर अधिष्ठित होने के वादकी दशाका वर्णन करते हुए लिखा हैवह मति श्रुत अवधि और मनः पर्यय नामक चार निर्मल ज्ञानोंसे सम्पन्न थे । उन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तपको तपा था । वे अणिमा आदि आठ प्रकारकी विक्रिया ऋद्धिसे भूषित थे । सर्वार्थसिद्धिके निवासी देवोंसे अनन्तगुण बलशाली थे। एक मुहूर्त में द्वादशांग के अथचन्तनमें और पाठ करनेमें समर्थ थे । वे अपने पाणिपात्र में दी गई खीरको अमृत रूपसे परिवर्तित करनेमें तथा अक्षय बनाने में समर्थ थे। उन्हें आहार और स्थान सम्बन्धी श्री ऋद्धि प्राप्त थी । वे सर्वावधि ज्ञानी और उत्कृष्ट विपुल मति मन:पर्ययज्ञानी थे । सात प्रकारके भयसे रहित थे । उन्होंने चारो कषायोंको नष्ट कर दिया था । पाँचों इन्द्रियोंको जीत लिया था । मन वचन और कायरूप तीन दण्डोंको भग्न कर दिया था । आठ मदोंको नष्ट कर दिया था | सदा दस धर्मोका पालन करने में वह तत्पर रहते थे । पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन माताओं का पालन करते थे । बाईस परीषहोंके विजेता थे । सत्य ही उनका अलंकार था ।
० भगवती सूत्र (१-१७) में इन्द्रभूतिके गुणोंका वर्णन इस प्रकार है-उस समय श्रमण भगवान महावीरका प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार था। उसका गोत्र गौतम था, सात हाथ ऊँचा था, समचतुरस्त्र संस्थान तथा वज्रवृषभनाराच संहननका धारी था, कसौटी पर अंकित सुवर्णकी रेखा तथा कमलकी केसरके समान गौर वर्ण था । उग्र दीप्त, तप्त और महातपका आचरण करनेवाला था । घोर तपस्वी और घोर ब्रह्मचर्य का पालक था, शरीरके संस्कारोंसे दूर रहता था, तेजोलेश्याका धारक था, चौदह पूर्वोका ज्ञाता और चार ज्ञान
क० पा०, भा० १, पृ० ८३ ।
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