Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२७१ किया है। मगर इस परिभाषासे भी उक्त आपत्तिका परिहार नहीं होता क्योंकि जब मगधकी भाषा मागधी थी तो श्राधे मगधकी भाषा उससे सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती। दूसरे, श्वेताम्बरीय आगम सूत्रों पर महाराष्ट्रीका गहरा प्रभाव परिलक्षित होनेका कारण यह है कि महाबीर निर्वाणसे ९८० वर्ष पश्चात् वलभीमें उनका संकलन, सम्पादन और लेखन हुआ तथा तबसे उनके संशोधन, संवद्धन, संरक्षा, पठन पाठन लेखन आदि का कार्य गुजरात और काठियावाड़में ही होता रहा। फिर भी अणेग, उदही, लोगालोगे, आदि शब्द उक्त आगमोंके किसी भी पृष्ठमें देखे जा सकते हैं, जो अर्ध मागधीके महाराष्ट्री चित्र मूल आधारके सूचक हैं।
अतः अर्धमागधी एक ऐसी भाषा थी जो मागधी तथा अन्य प्रान्तोंकी भाषाओंके मेलसे निष्पत्र हुई थी। उसीको भगवान महाबीरने अपने उपदेशका माध्यम बनाया था। उसे सभी श्रोता. सरलतासे समझ सकते थे।
महावीर भगवान के गणधर ___ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें महावीर भगवानके ग्यारह गणधर बतलाये हैं। उनमें प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। शेष गणधरों से कुछके नामोंमें अन्तर पाया जाता है। आचार्य गुणभद्रने अपने उत्तर पुराणमें ग्यारह गणधरोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं - इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा, मौर्य, मौन्द्र, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेल या अन्वचेल, और प्रभास ( पर्व २४, श्लो० ३७३-३७४)। श्वेताम्बर साहित्य में उनके नाम इस प्रकार पाये जाते हैं-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडिक (त), मौर्यपूत्र, अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास। इन ग्यारह गणधरोंमेंसे दिगम्बर
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