Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ.-पूर्व पीठिका संवर संवुतो' को समझने में बौद्ध टीकाकारने ही भूल नहीं की किन्तु मूल ग्रन्थकारने भी भूल की है क्योंकि पालीशब्द चातुर्याम
और प्राकृतशब्द चातुज्जाम तुल्सा हैं। चातुज्जाम एक प्रसिद्ध जैन पारिभाषिक शब्द है जो महावीरके पांच महाव्रतोंके स्थानमें पार्श्व के चार व्रतोंको बतलाता है। अतः मेरा अनुमान है कि उस सिद्धान्तको, जो वास्तवमें महावीरके पूर्वज पार्श्वनाथका था, महावीरका बतलानेमें भूल की है। यह भूल महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि बौद्धोंने पार्श्व के अनुयायियोंसे उक्त चातुर्याम को न सुना होता तो निर्गन्थ सम्प्रदायके निर्देशकके रूपमें वे उसका प्रयोग न करते। तथा यदि बुद्धके समयमें महावीरके किये गये सुधारोंको सब निग्रन्थोंने स्वीकार कर लिया होता तो भी बौद्धोंने 'चातुर्याम संवर संवुतों' का प्रयोग न किया होता। अतः बौद्धोंकी बड़ी भूलको मैं इस जैन कथनकी कि महावीरके समय में पार्श्व के अनुयायी वर्तमान थे-सत्यताके प्रमाण रूपमें पाता हूँ ( से० बु० ई०, जि० ४५, प्रस्ता० पृ० २१)
इस तरह बौद्ध त्रिपिटकोंके उल्लेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि बुद्धके बाल्यकाल में भी निर्ग्रन्थ श्रावक वर्तमान थे तथा बुद्ध पार्श्वनाथके चतुर्यामसे न केवल परिचित थे किन्तु उन्होंने उसे ही विकसित करके अपने अष्टांगिक मार्गका निर्धारण किया था। और उनके समयमें पार्श्वनाथके अनुयायी निग्रन्थ वर्तमान थे। ___ अब हम जैन साहित्यसे इस सम्बन्धमें कुछ प्रमाण उपस्थित करेंगे।
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