Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् पाश्वनाथ
२२१ उद्यानमें गये । गौतमको आता देख श्रमण केशीकुमारने उनका यथोचित समादर किया और बैठने के लिये प्रासुक तृणोंका
आसन प्रदान किया । तब केशीने गौतमसे पूछा-हे महाभाग ! महामुनि पार्श्वने चातुर्याम धर्मका और वर्धमानने पञ्च शिक्षारूप धर्मका उपदेश किया। एक ही कार्यके लिये प्रवृत्त धर्ममें भेदका कारण क्या है ? केशीका प्रश्न सुन कर गौतम बोले-धर्म तत्त्वकी समीक्षा बुद्धि पर निर्भर है। ऋषभ देव के शिष्य ऋजु जड़ थे और महावीरके शिष्य वक्र जड़ हैं । किन्तु बीचके बाईस तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होने वाले शिष्य ऋजु और समझदार थे। इसीलिये धर्ममें भेद पड़ा।"
केशी गौतम संवादसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि भगवान महावीरके समयमें भी पार्श्वनाथके अनुयायी श्रमण संघ मौजूद थे। अतः बौद्धोंने जो निम्रन्थके लिये चतुर्याम संवरसे संवृत बतलाया है वह भी अवश्य ही इस बातका सूचक है कि बुद्धकालमें पार्श्वनाथके अनुयायी निम्रन्थ मौजूद थे।
श्वेताम्बरीय जैनागमोंमें ऐसे अनेक व्यक्तियोंका निर्देश है जिन्हें 'पासावच्चिज्ज' कहा गया है। इसका संस्कृतरूप पाश्वातत्यीय होता है। टीकाकारों ने इसका अर्थ 'पार्श्व स्वामीके
१-प्रो० दलसुख मालवाणियाने उनकी संख्या ५१० बतलाई है उनमेंसे ५०३ साधु थे। देखो-जैनप्र० का उत्थान महावीराङ्क पृ० ४७ । ___२-'पापित्यस्य-पार्श्वस्वामिशिष्यस्य अपत्यं-शिष्यः पावापत्यीयः' ( सू० २-७ ) । 'पापित्यानां-पार्श्वजिनशिष्याणामयं पावपित्यीयः ( भग० १-६)। पार्श्वनाथशिष्यशिष्ये ( स्था० ६)। चातुर्यामिक साधौ ( भग० १५)।
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