Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
पश्चात् भी भगवान महावीरका प्रव्रज्या के समयसे धारण किया गया मौन भंग नहीं हुआ और वे छियासठ दिन तक मौनपूर्वक विहार करते हुए राजगृही नगरीमें गये और उसके बाहर स्थित विपुलाचल पर विराजमान हो गये। वहीं उनका प्रथम समवसरण रचा गया । वहीं इन्द्रभूति गौतमने उनके पादमूल में प्रव्रज्या धारण की और वहीं उनकी प्रथम धर्मदेशना हुई।
इस विषय में वीरसेन स्वामीने अपनी धवला और जयधवला टीकामें कतिपय प्राचीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए विस्तृत वर्णन किया है । जयधवला में प्रश्न किया गया है कि महावीर ने धर्मतीर्थंका उपदेश कहाँ दिया ? इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि 'जब महामंडलीक राजा श्रेणिक अपनी चेलना रानीके साथ सकल पृथ्वी मण्डलका उपभोग करता था तब मगध देशके तिलक के समान राजगृह नगरकी नैऋत्य दिशामें स्थित तथा सिद्ध और चरणोंके द्वारा सेवित विपुलगिरि पर्वतके ऊपर बारह सभाओं से वेष्ठित भगवान महावीरने धर्मतीर्थका उपदेश दिया ।'
१ - - षट्षष्ठि दिवसान् भूयो मौनेन विहरन् प्रभुः । श्राजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ||६१ ॥ श्रारुरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रवोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥६२॥
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समवस्थान मर्हतः ॥६८॥
इंद्रानिवायुभूताख्या: कौण्डिन्याख्याश्च पंडिताः । इन्द्रयायाताः प्रत्येकं सहिताः सर्वे शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । त्यक्ताम्वरादिसम्बन्धाः संयमं प्रतिपेदिरे ||६६||
-- हरि० पु०, २ सर्ग ।
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