Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर
२६७ जिस देशमें प्रचलित थी उसीको पालिका उत्पत्तिस्थान बतलाया था। इससे यह स्पष्ट है कि बुद्धके उपदेशोंका माध्यम लोक भाषा ही थी। और भगवान महाबीरके उपदेशोंका माध्यम अर्धमागधी भाषा थी। इस भाषाकी यह विशेषता थी कि सब श्रोता इसका अभिप्राय अपनी अपनी भाषामें समझ लेते थे। भाषाकी इस विशेषताको देवताओंका अतिशय भी कहा गया है कि मागध जातिके देवोंके द्वारा उसका परिणामन इस रूपमें कर दिया जाता था जिसको सब श्रोता समझ सकते थे। यह तथोक्त देवकृत अतिशय आधुनिक युगके उन यंत्रोंका स्मरण दिलाते हैं जिनके द्वारा एक भाषामें कही गई बातको तत्काल विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर दिया जाता है और इस तरह श्रोता अपनी अपनी भाषा में ही उसका अभिप्राय समझ लेते हैं। उक्त विशेषताको वक्ता भगवान् तीर्थङ्करका भी अतिशय बतलाया गया है। आजके वैज्ञानिक युगमें इसका आशय हम यह ले सकते हैं कि भगवान महाबीर अपना उपदेश एक ऐसी भाषामें देते थे जो भाषा किसी देश विशेषसे सम्बद्ध नहीं थी, यद्यपि उसमें उस देशकी भाषाके शब्दोंकी बहुतायत थी जिस देशमें भगवानकी प्रथम धर्म देशना हुई थी। वह देश मगध था, इसीसे भगवान की वाणी अर्धमागधी कही जाती थी। १६वीं शताब्दीके ग्रन्थकार श्रुतसागर' श्रुरिके अनुसार भगवानकी भाषाका अर्धभाग मगध देशकी भाषा अर्थात् मागधी भाषारूप था और आधा भाग अन्य सर्वभाषारूप था।
१. 'सर्वार्धमागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्ध. भगवद्भाषाया
मगधदेशभाषात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मकम्' -षट्प्रा० टी०, पृ० ६६ ।
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