Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
भगवान् महावीर
२५६ देवताओंका जय जयकार सुनकर यज्ञमें उपस्थित समूह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने समझा कि देवगण यज्ञमें पधार रहे हैं। किन्तु जब देवगण यज्ञमें न पधारकर समीपमें ही स्थित भगवान महावीरके समवरणमें चले गये तो जन समूह भी उधर ही चला
आया, और यह बात सर्वत्र फैल गई कि यहां एक सर्वज्ञ आये हुए हैं और देव उनकी पूजा करते हैं। इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण विद्वान इस बात को सुनकर क्रुद्ध होता हुआ यज्ञ मण्डपसे समवसरणकी ओर चला। उसे देवोंके द्वारा महावीरकी पूजा तथा उनकी सर्वज्ञताका प्रवाद सह्य नहीं हुआ । इन्द्रभूतिको देखते ही सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवानने उसका नाम और गोत्र उच्चारण करते हुए उसे अपने पास बुलाया। महावीरके मुखसे अपना नाम
और गोत्र सुनकर प्रथम तो उसे कुछ अचरज हुआ, पीछे उसके अहंकारने उसे सुझाया कि मैं तो सर्वलोक प्रसिद्ध हूं, मुझे कौन नहीं जानता। यदि यह मेरे मनोगत संशयको बतलाये तो मैं सममूकि यह सर्वज्ञ है। ___ इतने में ही महावीरने कहा-'इन्द्रभूति गौतम ! तुझे जीवके अस्तित्वमें सन्देह है। अपने मनोगत सन्देहका निवारण होते ही इन्द्रभूतिने महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करके उनके चरणोंमें प्रव्रज्या लेली और महावीरका प्रधान गणधर पद अलंकृत किया। इस तरह श्वेताम्बरीय साहित्यके अनुसार महावीरके तीर्थका प्रवर्तन मध्यमा नगरीके महासेनवनमें हुआ। वहांसे महावीरने राजगृहीकी ओर प्रस्थान किया और वहां उनका तीसरा समवसरण रचा गया।
किन्तु दिगम्बर साहित्यके उल्लेख उक्त कथनके अनुकूल नहीं हैं। उनके अनुसार जृम्भिका ग्राममें केवल ज्ञान होनेके
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org