Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान महावीर
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में 'उसभदिन्न' होना चाहिये था। इसके सिवाय यह नाम ऐसा है जो केवल जैन को ही दिया जासकता है, ब्राह्मण को नहीं। अतः मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि देवानन्दाका दूसरा पति करार देनेके लिये जैनोंने ऋषभदत्त नामका आविष्कार किया है। अब सिद्धार्थ को लीजिये। त्रिशलाके साथ विवाह होनेसे उच्चवंशी तथा महान् प्रभुत्वशाली व्यक्तियोंके साथ उनका सम्बन्ध हो गया इसलिये सम्भवतया यह प्रकट करना कि महावीर त्रिशलाका दत्तक पुत्र नहीं किन्तु औरस पुत्र है अधिक लाभदायक समझा गया । क्योंकि इससे महावीर त्रिशलाके सम्बन्धोंका उत्तराधिकार प्राप्त कर सकता था । और चूकि जब महावीर तीर्थङ्कर हुये उनके माता पिताका स्वर्गवास हुए बहुत वर्ष हो चुके थे, इसलिये यह कथा सरलतासे प्रसारित हो सकी। किन्तु यतः मनुष्योंकी स्मृतिसे वास्तविक स्थितिका मिटा सकना शक्य नहीं था, इस लिये गर्भपरिवर्तनकी कथाका आविष्कार किया गया। गर्भपरिवर्तनका विचार जैनोंकी मौलिक रचना नहीं है किन्तु स्पष्ट ही, यह विचार उस पौराणिक कथाकी अनुप्रतिकृति है जिसके अनुसार श्रीकृष्णको देवकीके गर्भसे रोहिणीके गर्भ में परिवर्तित किया गया था।" (से० वु० ई., जि० २२, प्रस्ता? पृ० ३१ की टि० नं०२)
महावीरके गर्भपरिवर्तनको समस्याको सुलझानेके लिये डा० याकोवीको भी क्लिष्ट कल्पनाका ही आश्रय लेना पड़ा है। किन्तु इसके मूलमें हमें तो ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्वके बीचमें बड़प्पनको लेकर उठे प्रचीन विरोधका ही आभास प्रतीत होता है। जैन और बौद्ध दोनों ब्राह्मणसे क्षत्रियको अधिक आदर प्रदान करते थे। इतना ही नहीं किन्तु ब्राह्मण वंशको नीच वंश तक मानते
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