Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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: भगवान महावीर
२४९ ग्रहण नहीं करते । तथापि सवस्त्र तीर्थका उपदेश करनेके लिये इन्द्रके द्वारा अर्पित एक देवदूष्य धारण करके दीक्षा लेते हैं। जब वह वस्त्र गिरजाता है तो सभी अचेल-वस्त्ररहित नग्न हो जाते हैं।"
भाष्यकारके उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि चौबीसों तीर्थङ्कर सुदृढ़ शरीर वाले तथा परीषहोंको सहनेमें समर्थ होते हैं इस लिये उन्हें वस्त्रकी आवश्यकता नहीं होती। तथा उनके हस्तपुट छिद्ररहित होते हैं, उससे ही वे आहार ग्रहण कर सकते हैं इसलिये उन्हें पात्रकी आवश्यकता नहीं होती। फिर भी सवस्त्र तीर्थका उपदेश देनेके लिये वे एक वस्त्र धारण करते हैं और उस वस्त्रके गिरजाने पर नग्न विचरण करते हैं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि तीर्थङ्करोंको अपने शिष्योंका नग्न रहना इष्ट नहीं था, यद्यपि वे स्वयं नग्नता ही पसन्द करते थे, अतः उन्होंने कुछ समय तक एक वस्त्र धारण किया। दूसरे शब्दोंमें यदि यह कहा जाये कि सवस्त्र परम्पराका पोषण करने के लिये ही देवदूष्यकी कल्पना की गई तो कुछ अयुक्त न होगा । अस्तु । आगे इस सम्बन्धमें विशेष विचार किया जायेगा।
तपस्या और ज्ञानलाभ जैन साहित्यके अवलोकनसे प्रकट होता है कि महावीरने दुद्धर्ष तपस्या की थी। उनका तपस्वी जीवन रोमाञ्चकारी था । जिन दीक्षा धारण करनेके पश्चात् ही वे ध्यान मग्न हो गये थे और छै मास तक ध्यानस्थ रहे थे। छै मासके पश्चात् उन्होंने
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