Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् महावीर अज्ञान और राग द्वेष। इन दोनोंसे वह मुक्त है, अतः वह सत्यार्थका ही प्रतिपादन करता है । . इसीसे भगवान महावीर अपने बारह वर्षके साधना कालमें मौन ही रहे, उन्होंने किसीको कोई उपदेश नहीं दिया। बारह वर्षकी साधनाके पश्चात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाने पर ही उन्होंने अपनी प्रथम धर्मोपदेशना की। उसी समयसे वे तीर्थङ्कर कहलाये। ___ भगवान महावीरकी सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्वकी चर्चा उनके समयमें सर्वाविश्रुत थी, यह बात बौद्ध त्रिपिटिकोंसे भी प्रकट होती है। ___मज्झिम निकायके 'चूल-दुक्खक्खन्ध सुत्तन्त' (पृ० ५६) में बुद्ध महानाम शाक्यसे कहते हैं--"एक समय महानाम ! मैं राजगृहमें गृध्रकूट पर्वतपर विहार करता था। उस समय बहुत से निगंठ ( =जैन साधु ) ऋषिगिरिकी काल शिलापर खड़े रहने ( का व्रत ) ले, आसन छोड़, उपक्रम करते, दुःख कटु तीव्र वेदना झेल रहे थे। तब मैं महानाम ! सायंकाल ध्यानसे उठकर जहाँ ऋषिगिरिके पास कालशिला थी, जहाँ पर कि वह निगंठ थे, वहाँ गया। जाकर उन निगंठोंसे बोला-'आवुसो! निगंठो! तुम खड़े क्यों हो, आसन छोड़े दुःख कटुक तीव्र वेदना झेल रहे हो।' ऐसा कहने पर उन निगंठोंने कहा-श्रावुत ! निगंठ नाथपुत्त ( =जैन तीर्थङ्कर महावीर ) सर्वज्ञ सर्वदर्शी आप अखिल (=अपरिशेष) ज्ञान दर्शनको जानते हैं-चलते खड़े, सोते जागते, सदा निरन्तर (उनको) ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है। वह ऐसा कहते हैं-निगंठो ! जो तुम्हारा पहलेका किया हुआ कर्म है उसे इस कड़वी दुष्कर क्रिया ( =तपस्या ) से नाश करो और जो इस वक्त यहां काय वचन मनसे, संवृत्त ( =पाप न करनेके
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