Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० पूर्व पीठिका प्राचीन जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंकी चर्चा आगे की जायेगी। उनमें अंग और पूर्व नामक सिद्धान्त ग्रन्थ भी थे, जो नष्ट हो गये । पूर्वोके विषयमें ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वे भगवान् महावीरसे पहलेके थे इसीसे उन्हें पूर्व कहते थे। उन पूर्वांसे ही अंगोंके विकासके भी उल्लेख मिलते हैं। इस परसे डा० याकोवी का मत है कि महावीरके पूर्ववर्ती निन्थोंके वही धार्मिक ग्रन्थ थे।
त्रिपिटकसे यह प्रकट है कि भगवान बुद्ध आचारविषयक नियमोंमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते रहते थे। किन्तु जैनसाहित्यमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें इस प्रकारका संकेत तक नहीं मिलता। इससे यह प्रकट होता है कि बुद्धने अपना पन्थ स्थापित किया था जब कि महाबीर उस निम्रन्थ मार्गके एक प्रवर्तक थे जो पाश्व नाथके समयसे चला आता था। अतः निग्रन्थ मार्गकी निश्चित आचार परम्परा तथा विचार परम्परा का कुछ अंश उन्हें अवश्य ही पूर्वागत प्राप्त होना चाहिये । अतः भगवान महाबीर द्वारा प्रवर्तित जैन दर्शनके सिद्धान्त केवल महावीरकी ही देन नहीं है उनमें भगवान पार्श्वनाथकी भी देन है, किन्तु उस देनका विभागीकरण करना शक्य नहीं है। तथापि जैन दर्शनकी प्राचीनताको स्पष्ट करनेके लिये डा० याकोबीके एक लेखके आधार पर यहाँ संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है।
भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान
हम पहले लिख आये हैं कि प्रोफेसर ड्य सन (Deussen) ने उपनिषदोंको चार समूहोंमें विभाजित किया है। प्रथम
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