Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
२०५
ब्राह्मण ग्रन्थका प्रणयन हुआ वहाँ वृहदारण्यकोपनिषद् के द्वारा उपनिषदों की रचनाका सूत्रपात्र हुआ। ऐसे उथल-पुथल के समय में बिना किसी दार्शनिक भित्तिके केवल चतुर्यामरूपी स्तम्भोंके आधारपर धर्मका प्रसाद नहीं खड़ा किया जा सकता । श्रहिंसा और सर्वस्व त्यागको अपनाकर निग्रन्थ बननेका कोई लक्ष्य तो होना ही चाहिये | आग जलाकर तपस्या करनेको बुरा समझकर भी तपस्याका मार्ग अंगीकार करनेवाले के सामने आत्मा, पुनर्जन्म और मोक्षकी कोई न कोई रूप रेखा अवश्य रही होगी। यह हम पहले लिख आये हैं कि पुनर्जन्मका विचार उस आर्येतर संस्कृतिकी देन है जो ऋग्वेदसे भी प्राचीन है । अतः श्रमण परम्पराके एक प्रमुख स्तम्भका उक्त तत्त्वोंके सम्बन्ध में कोई विचार प्रदर्शित न करना सम्भव प्रतीत नहीं होता ।
दूसरे, विद्वानोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि बुद्ध आत्मा निर्वाण आदि प्रश्नोंको अव्याकृत कहकर टाल देते थे । दीर्घनिकाय के पासादिक सुत्तमे बुद्धने इस बातका उत्तर दिया है। कि आत्मा आदिके झगड़े में वह क्यों नहीं पड़े। उन्होंने चुन्दसे कहा – 'चुन्द' अन्य सम्प्रदायोंके परिव्राजक यदि पूछें कि इस विषय में श्रमण गौतमने क्यों कुछ नहीं कहा ? तो उन्हें ऐसा कहना चाहिये - आसो ! न तो यह अर्थोपयोगी है, न धर्मोपयोगी इत्यादि । किन्तु भगवान महावीरने इस प्रकार के किसी भी प्रश्नको अव्याकृत कहकर नहीं टाला । इससे यद्यपि महावीरकी बहुदर्शिता और बहुज्ञतापर प्रकाश पड़ता है तथापि ऐसा भी आभास होता है कि आचार विषयक मन्तव्यों की तरह कतिपय दार्शनिक मन्तव्य भी भगवान् महावीरको उत्तराधिकारके रूप में परम्परासे प्राप्त हुए थे ।
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