Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण गूंजने लगी थी। किन्तु आंगिरसको उसका मूल प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। घोर आंगिरसके सम्बन्धसे केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे भी ऋषि थे जो जीवनमें अहिंसा सत्य आदिके व्यवहारको प्रश्रय देते थे। किन्तु चातुर्यामरूप धर्मके संस्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। उन्होंने अपने इस धर्मका प्रचार सर्व साधारणमें किया और मुनि
आर्यिका श्रावक श्राविकाके भेदसे चतुर्विध संघकी स्थापना की। हम आगे बतलायेंगे कि भगवान महावीरके समयमें पार्श्वनाथके अनुयायी मुनि और गृहस्थ वर्तमान थे।
पार्श्वनाथके चातुर्याम धर्म तथा उनके प्रचारके सम्बन्धमें श्री कौशाम्बीजीने लिखा है-"पार्श्वनाथने इन यामोंको सार्वजनिक करनेका प्रयत्न किया। उन तथा उनके शिष्योंने लोगोंसे मिलनेवाली भिक्षापर निर्वाह करके सामान्य लोगोंमें इन यामोंकी शिक्षा देनेकी शुरुआत की। और उसका यह परिणाम हुआ कि ब्राह्मणोंके यज्ञयाग लोगोंको अप्रिय होने लगे। महावीर स्वामी, बुद्ध तथा अन्य श्रमणोंने इस दया धर्मके प्रचारको चालू रखा। और इस कारण ब्राह्मणोंकी श्रमणोंपर बिशेषतया जैनों और बौद्धोंपर वक्र दृष्टि हो गई। वास्तवमें है । प्रो० मोक्षमूलरने लिखा है कि समस्त वैदिक साहित्य बौद्ध धर्मके ( ई० पूर्व ५०० ) के लगभग ) पूर्वका है । बहुतसे विद्वानों का कहना है कि प्राचीनतम उपनिषदोंको ईस्वी पूर्व ६०० से पूर्व नहीं रखा जा सकता। डा० विन्टर नीट्स् ने उन्हें ईस्वी पूर्व ७५०-५०० के मध्यमें रखा है। अतः यह प्रायः निश्चित है कि उपनिषद भगवान पार्श्वनाथसे पूर्वके नहीं है । उनके कालसे ही उनका प्रणयन प्रारम्भ हुअा था।
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