Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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भगवान् पार्श्वनाथ
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भिक्षा भोजन करना, केश दाढ़ीके बालोंको उखाड़ना, कंटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना । रूक्षता का अर्थ है - शरीर पर मैल धरण करना या स्नान न करना । अपने मैलको न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरेसे परिमार्जित कराना । जुगुप्साका अर्थ है - जलकी बूंद तक पर दया करना । और प्रविविक्तताका अर्थ है - वनों में अकेले रहना ।
ये चारों तप निग्रन्थ सम्प्रदाय में आचरित होते थे । भगवान महावीरने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निग्रन्थोंके लिये भी इनका विधान किया था । किन्तु बुद्धके दीक्षा लेनेके समय महावीर निर्मन्थ सम्प्रदायका प्रवर्तन नहीं हुआ था । अतः अवश्य ही वह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीर के पूर्वज भगवान पार्श्वनाथका था, जिसके उक्त चार तपोंको बुद्धने धारण किया था, किन्तु पीछे उनका परित्याग कर दिया था । म० नि० के उक्त सुतके कथनसे यह स्पष्ट है ।
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दि० जैनाचार्य श्री देवसेनने वि० सं० ६६० में पूर्वाचार्य प्रतिपादित गाथाओं का संकलन करते हुए दर्शनसार नामके एक ग्रन्थ रचा था जिसमें अनेक मतोंकी उत्पत्ति बतलाई गई है उसमें बौद्धमतकी उत्पत्ति बतलाते हुए लिखा है कि- 'पार्श्वनाथ' भगवानके तीर्थ में सरयू के पलाश नामक नगर में पिहितास्रव मुनिका शिष्ये बुद्ध कीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुतबड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । मछलियोंका आहार करने से वह धारण की
१–'सिरिपासणाइतित्थे सरयूतीरे
पलासण्यरत्थो ।
मुणी ॥ ६ ॥ परिभहो ।
एतं ॥ ७ ॥
पियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्ती तिमिपूरणासहि श्रहिगयपव्वज्जाश्रो धरिता पवडियं तेण
रतंवरं
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