Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका गई प्रव्रज्यासे भ्रष्ट हो गया और उसने रक्ताम्बर धारण करके एकान्त मतकी प्रवृत्ति की।
यहाँ बुद्ध कीर्ति बुद्धदेवके लिये ही आया है क्योंकि आगे गाथा १० में उसके मतका प्रदर्शन करते हुए कहा है कि पाप अन्य करता है और फल अन्य भोगता है। यह बौद्ध मतके क्षणिकवादका ही निरूप है।
बुद्धको कठोर तपश्चर्यामें कुछ सार प्रतीत नहीं हुआ । इससे उन्होंने उसे छोड़ दिया। यह भी उनके जीवन वृत्तमें मिलता है। बौद्ध वाङमयके प्रकाण्ड पाण्डत और बुद्ध जीवनके विशिष्ट अन्वेषक श्री कौशम्बीने लिखा है कि'निर्ग्रन्थोंके श्रावक वप्प शाक्यके उल्लेखसे प्रकट है कि निग्रन्थोंका चतुर्याम धर्म शाक्यदेश तक प्रचलित था। परन्तु उस देश में निग्रन्थोंके आश्रम होनेका उल्लेख नहीं मिलता। इससे ऐसा लगता है कि निग्रन्थ श्रमण...... शाक्य देश पर्यन्त जाकर अपने धर्मका उपदेश करते थे। शाक्योंमें अलार कालामके श्रावक अधिक थे क्योंकि उसका आश्रम कपिलवस्तु नगर तक में था। गौतम बोधिसत्वने आलारके समाधिमार्गका अभ्यास किया था। और गृहत्याग करने पर तो प्रथम वह आलारके ही आश्रममें गये थे। और उन्होंने उसके योगमार्गका अभ्यास किया था। आलारने उन्हें समाधिके सात चरण सिखाये । उसके पश्चात् गौतम उद्रक रामपुत्रके पास गये और उससे समाधिका आठवाँ चरण सीखा। परन्तु उससे उनका समाधान नहीं हुआ क्योंकि उस समाधिसे मनुष्यके बीचकी कलह नहीं मिट सकती थी। तब बोधिसत्त्व उद्रक रामपुत्रका
आश्रम छोड़कर राजगृह आये। वहाँ के श्रमण सम्प्रदायोंमें उन्हें निम्रन्थोंका चातुर्याम संवर विशेष पसन्द आया, क्योंकि
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