Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै०
० सा० इ० - पूर्व पीठिका
बौद्ध साहित्य के उल्ल खोंके आधारपर बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित करते हुए स्व० डा० याकोवीने लिखा है
"यदि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय एकसा प्राचीन होते, जैसा कि बुद्ध और महावीरकी समकालीनता तथा दोनों को दोनों सम्प्रदायोंका संस्थापक माननेसे अनुमान किया जाता है, तो हमें यह आशा करनी चाहिये थी कि दोनोंने अपने-अपने साहित्य में अपने प्रतिद्वन्दीका अवश्य ही निर्देश किया होगा । किन्तु बात ऐसी नहीं है. बौद्धोंने अपने साहित्य में यहाँ तक कि पिटकों में भी निग्रन्थोंका बहुतायत से निर्देश किया है किन्तु प्राचीन जैन सूत्रोंमें मुझे बौद्धोंका किञ्चित् भी निर्देश नहीं मिला । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध निर्ग्रन्थ सम्प्रदायको एक प्रमुख सम्प्रदाय मानते थे किन्तु निर्यथ अपने प्रतिद्वन्दियोंकी उपेक्षा तक कर सकते थे । अतः उत्तरकाल में दोनों सम्प्रदायोंके जैसे पारस्परिक सम्बन्ध रहे उसके यह बिल्कुल विपरीत है। और यतः यह दोनों सम्प्रदायोंके समकाल में स्थापित होनेके हमारे अनुमानके भी विरुद्ध है अतः हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि बुद्धके समय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं था । यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है क्योंकि हम उनमें इसके विपरीत कोई उल्लेख नहीं पाते । ( इं० एंटि०, जि० ६, पृ० १६० ) ।
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मज्झिम निकायके महासिंहनाद सुत ( पृ० ४८-५० ) में बुद्धने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवनका वर्णन करते हुए तपके वे चार प्रकार बतलाये हैं जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था। वे चार तप हैं - तपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । तपस्विताका अर्थ है नंगे रहना, हाथमें ही
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