Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका होती है। और उन पाँच तन्मात्राओंसे पांचभूत बनते हैं । अतः मूल सांख्यमत परमाणुवादको नहीं मानता था। किन्तु सांख्य-योग दर्शनके कुछ ग्रन्थकार परमाणु वादको मानते थे ऐसा लगता है। ___ सांख्य कारिकाकी टीकामें गौड़पादने बिना विरोध किये परमाणुवादका कई जगह निर्देश किया है। योगसूत्र ( १.४० ) में भी उसे स्वीकार किया है । उसके भाष्य (१-४०,४३,४४,३-५२. ४-१४ वगैरहमें ) तथा वाचस्पति मिश्रकी टीका (१-४४ ) में भी परमाणुओंका अस्तित्व स्वीकार किया है।
इन उल्लेखोंसे प्रमाणित होता है कि परमाणुवाद सिद्धान्त इतना अधिक लोकसम्मत था कि उत्तरकालमें सांख्ययोगने भी उसे स्वीकार कर लिया। अब आत्मतत्त्वको लीजिये
आत्मतत्त्वके विषयमें जैन और सांख्ययोग कतिपय मूल बातोंमें सहमत है। आत्माएँ सनातन और अविनाशी हैं, चेतन हैं, किन्तु जड़कर्मोंके कारण, जो अनादि हैं, उनका चैतन्य तिरोहित है। मुक्ति होनेपर कर्मों का अन्त हो जाता है।
किन्तु आत्माके आकारके विषयमें जैनोंका अपना एक पृथक मत है जो किसी भी दर्शनमें स्वीकार नहीं किया गया। जैन मानते हैं कि प्रत्येक आत्मा अपने शरीरके बराबर आकारवाला होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलके सांख्य इस विषयमें कोई स्पष्ट मत नहीं रखते थे। क्योंकि योग भाष्य (१-३६ ) में पञ्चशिवका मत उध्धृत किया है जिसमें आत्माको अणुमात्र बतलाया है। जबकि ईश्वरकृष्ण तथा पश्चात्के सभी ग्रन्थकारोंने आत्माको व्यापक लिखा है।
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