Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और सब प्रकारकी परिग्रहका त्याग। इनको 'याम' कहा है। 'यम्' का अर्थ है दमन करना। चार प्रकारसे आत्म दमनका नाम चातुर्याम था।
इन चार यामोंका उद्गम वेदों या उपनिषदोंसे नहीं हुआ। किन्तु वेदोंके पूर्वसे ही इस देशमें रहनेवाले तपस्वी ऋषि मुनियोंके तपोधर्मसे इनका उद्गम हुआ है। (पा. चा०, पृ० १५)।
छा० उप० लिखा है कि देवकीपुत्र श्रीकृष्णको आंगिरसऋषिने आत्मयज्ञका व्याख्यान किया था और तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्यवचनको उसकी दक्षिणा बतलाया था। यह आंगिरस ऋषि कौन थे, कब हुए, यह अज्ञात है। जैन ग्रन्थोंके अनुसार श्रीकृष्णके गुरु तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ थे। श्री कौशाम्बी जीने उसी आधारसे नेमिनाथके आंगिरस ऋषि होनेकी संभावना व्यक्त की थी, किन्तु इस संभावनाके लिये प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि छान्दोग्य उपनिषद् के समय' अहिंसा सत्य, तप, आदि की ध्वनि वैदिक क्षेत्रमें भी
१-'सव्वातो पाणातिवायात्रों वेरमणं, एवं मुसावायात्रों वेरमणं, सव्वातों आदिन्नादाणाओं वेरमणं, सव्वाश्रों वहिद्धादाणात्रों वेरमणं । " (स्था०, सू० २६६)।
२-वृहदा रण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय और कौषीतकी ये चार उपनिषद सब उपनिषदोंमें प्राचीन माने जाते हैं । सब प्राचीन उपनिषद भी एक समय के नहीं हैं, विभिन्न कालोंमें उनकी रचना हुई है । उनमें जो परस्पर विरोधी अनेक बातें मिलती हैं। उनका एक कारण यह भी है । साधारणतया प्राचीन उपनिषदोंको बुद्ध पूर्वका माना जाता
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