Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१७९
बतलाया है । शतपथ ब्रा० (६-८- ४ ) में पुरुषोंको असुर राक्षस बतलाया है। इससे पुरुओंके प्रति वैदिक दृष्टिकोणका संकेत मिलता है । किन्तु पुरुलोग आर्य प्रतीत होते हैं क्योंकि ऋग्वेदकी अनेक ऋचाओं में मूलनिवासियों पर पुरुयोंकी विजयका निर्देश है।
असल में आर्यों में भी अनेक भेद थे। सभी आर्य वैदिक नहीं थे । इससे आर्यों में भी परस्पर में युद्ध होते थे । उदाहरण के लिये, सर जार्ज ग्रियर्सनका मत है कि ब्राह्मणधर्मके पक्षपाती कुरुओंसे ब्राह्मण धर्म-विरोधी पञ्चाल आर्योंने पहले प्रवेश किया । ब्राह्मण विरोधी पार्टी योद्धा लोगों की थी, उन्होंने पुरोहित पार्टीको हराया। ( कै० हि० पृ० २७५ ) । अतः यह संभव है कि पुरुलोग अवैदिक ऋषभदेव के उपासक रहे हों। इसीसे वैदिक आर्योंका उनके प्रति शत्रुभाव रहा हो ।
ऋग्वेद में पुरुओंको सरस्वती के तटपर बतलाया है । पुरुराजाओं की असाधारण लम्बी सूची से पुरुजातिका महत्त्व स्पष्ट है । इक्ष्वाकु परम्परा मूलतः पुरुराजाओं की एक परम्परा थी । उत्तर इक्ष्वाकुओं का सम्बन्ध अयोध्यासे था । जैन शास्त्रोंमें अयोध्याको ही ऋषभदेवकी जन्मपुरी बतलाया है। उधर सांख्यायन श्रौत सूत्रमें हिरण्यगर्भकी उपाधि 'कौसल्य' बतलाई है। अयोध्याको कोसलदेस कहते थे । अतः कौसल्यका मतलब होता है कोसलका जन्मा हुआ या कोसलका राजा । यह हम पहले लिख आये हैं कि जैन शास्त्रोंमें ऋषभदेवको हिरण्यगर्भ भी कहा है और उनका जन्म अयोध्या नगरीमें बतलाया है । अतः यदि हिरण्यगर्भ ऋषभदेव थे तो उनका अयोध्या नगरीके होने का भी समर्थन होता ही है। किन्तु यह सब अभी अन्वेरणीय है । अतः अभी यह निश्चयपूर्वक कह सकना शक्य नहीं
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