Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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विष्णु पुराण अध्याय १७-१८ में भी लगभग ऐसी ही कथा है, जो इस प्रकार है-एक बार देवों और असुरोंमें युद्ध हुआ। देव हार गये और असुर जीत गये। हारे हुए देव विष्णु भगवानकी शरणमें पहुंचे और प्रार्थना करने लगे कि महाराज ! कोई ऐसा उपाय बतलाइये, जिससे हम असुरों पर विजय प्राप्त कर सकें। देवोंकी प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवानने अपने शरीरसे एक मायामोह नामका पुरुष उत्पन्न किया और देवताओंसे कहा-यह मायामोह अपनी मायासे उन दैत्योंको मोहितकर वेद मार्गसे भ्रष्ट कर देगा । तब वे दैत्यगण आपके द्वारा मारे जा सकेंगे।
तब वे हदेवगण उस मायामोको लेकर उस स्थानपर गये जहाँ असुर लोग तप करते थे। उस मायामोहने नर्मदाके किनारे तपस्या करते हुए उन महा असुरोंको देखकर दिगम्बर साधुका भेष धारण किया। वह शरीरसे नग्न था उसका सिर मुड़ा हुआ था, और हाथमें मयूरके पंखोंकी पीछी थी। वह उन दैत्योंसे मीठी बाणीमें बोला-तुम लोग यह तप ऐहिक फलकी इच्छासे करते हो या परलोक सम्बन्धी फलकी इच्छा से ? तब असुर बोले-हम परलोकके सुखकी इच्छासे तप करते हैं आप हमसे क्या चाहते हैं ? मायामोह बोला-मुक्ति चाहते हो तो मेरा कहना मानो। तुम आहत धर्म धारण करो, यही मुक्तिका खुला द्वार है। इस धर्मसे बढ़कर मुक्ति देनेवाला कोई दूसरा धर्म नहीं है। इस प्रकार उस मायामोहके समझानेपर वे दैत्य वेदमार्गसे भ्रष्ट हो गये और आर्हत धर्मको धारण करनेसे आहत ( जैन) कहलाये।
इसी प्रकारकी कथा शिवपुराण द्वितीय रुद्र हिसंता, खण्ड ५, अध्याय ४-५ में भी है।
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