Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा. इ.-पूर्व पीठिका इसी तरह महा भारत अनुशासन पर्वमें महादेवके नामोंमें शिवके साथ ऋषभ नाम भी गिनाया है। यथाऋषभत्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः। अ०१४,श्लो०१८
ब्रात्य वैदिक वाङ यामकी एक कठिन पहेली 'व्रात्य' भी रहा है। ऋग्वेदके अनेक मन्त्रोंमें (१-१६३-८, ६-१४-२ आदि ) व्रात्य शब्द आया है। अतः स्पष्ट है कि 'व्रात्य' बहुत प्राचीन हैं। यजुर्वेद तथा तैत्ति० ब्रा० (३, ४.१-१ ) में व्रात्यका नाम नरमेध की बलि सूची में आया है। अर्थात् नरमेधमें जिन मनुष्योंका बलिदान किया जाता था उनमें ब्रात्य भी थे। महाभारतमें (५-३५-४६) व्रात्योंको महापातकियोंमें गिनाया है। किन्तु अथर्ववेदमें व्रात्यका वर्णन बहुत ही प्रभावक है। अथर्वके १५वें काण्डका पहला सूक्त है
व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समैश्यत् । अर्थात-'व्रात्य ने अपने पर्यटनमें प्रजापतिको शिक्षा और प्रेरणा दी । एक व्रात्यका प्रजापतिको शिक्षा देना अवश्य ही एक श्राश्वर्यजनक बात है। अतः सायणने इसकी व्याख्या में लिखा है___'कंचिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसम्मान्यं कर्मपरै ब्राह्मणैर्विद्विष्टं ब्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम् ।
अर्थात्- यहाँ किसी विद्वानोंमें उत्तम महाधिकारी, पुण्यशील विश्वपूज्य व्रात्यको लक्ष्य करके उक्त कथन किया है, जिससे कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वेष करते थे।
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