Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१३७ कर हम पुनः इस प्रश्नकी ओर आते हैं कि कृष्ण वासुदेवका विष्णुके साथ एकीकरण कब हुआ और क्यों हुआ ? इस संबन्धमें हम राय चौधरीकी खोजका उद्धृ त करना उचित समझते हैं। उन्होंने लिखा है-"कृष्ण वासुदेवका नारायण विष्णुके साथ प्रथम बार एकीकरण कब हुआ, इसका निर्णय कर सकना शक्य नहीं है।...........यह बतलानेके लिये भी कि प्राचीन भागवत धर्ममें विष्णुका प्रमुख स्थान था कोई साक्षात् प्रमाण नहीं है । पाञ्चालके एक मित्र सिक्केपर चार हाथ वाले विष्णुकी मूर्ति अंकित है। किन्तु यह बतलानेका कोई साधन नहीं है कि जिस राजाने वह सिक्का चलाया वह भागवत-वासुदेव संकर्षण सभ्यताका अनुयायी था । विष्णु पूजा ब्राह्मण सभ्यताके प्रतिद्वन्दीके रूपमें चली आयी हो सकती है। वासुदेवका नारायण विष्णुके साथ एकीकरणका स्पष्ट निर्देश तैत्तिरीय आरण्यकमें मिलता है किन्तु तैत्ति० आ० का समय निश्चत नहीं है। उसके जिस अन्तिम भागमें वासुदेवका नाम आया है वह भाग निश्चय ही उत्तर कालीन है । डा० मित्रके अनुसार यह ईस्वी सन् के प्रारम्भकी उपज है । किन्तु यतः
आपस्तब सूत्रके द्वारा उसका अस्तित्व पूर्वानुमानित है । अतः हमारा झुकाव डा. कीथके इस मतकी ओर हैं कि तैत्ति० आर० सम्भवतया ईस्वी पूर्व तीसरी शतीका है। ईस्वी पूर्व तीसरी शतीके ब्राह्मण ग्रन्थमें नारायण विष्णुके नामसे वासुदेवका पाया जाना अर्थ पूर्ण है । क्या यह सम्राट अशोकका क्रियाशील आन्दोलन था जिसने भागवतोंको अपना मित्र बनानेके उद्देश्यसे वासुदेवको नारायण विष्णुके साथ सम्बद्ध करनेके लिये वैदिक पुरोहितोंको प्रेरित किया ? महाभारतमें ऐसे चिन्ह पाये जाते हैं जो बतलाते
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