Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
'वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् ( ४-३-६८ ) सूत्रमें वासुदेवकी भक्ति करने वालेके अर्थ में वुन् प्रत्ययका विधान किया है । मेगास्थनीज़ने लिखा है कि मथुरा में कृष्णकी पूजा होती है । महानारायण उपनिषद् ( ई० पूर्व ३री शती अनुमानित ) में विष्णुको वासुदेव कहा है, जो बतलाता है कि कृष्ण विष्णु बन चुके थे । अन्तमें उक्त पाणिनिसूत्र के महाभाष्य में वासुदेवको परमेश्वर कहा है ।
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इस विषय में डा० भण्डारकर का अपना एक जुदा मत है । वह वासुदेव और कृष्ण में भेद मानते हैं । उनका मत है कि वासुदेव सात्वत् जातिके मनुष्य थे जो ई० पूर्व छठी शती में हुए । उन्होंने अपनी जातिवालोंको एकेश्वर वादका उपदेश दिया। बाद को उनके अनुयायी लोगोंने उन्हें देवताका रूप देकर पूजना शुरू कर दिया । बादको उन्हें नारायण, फिर विष्णु और फिर मथुराका कृष्ण गोपाल बना दिया । इसी सम्प्रदाय से गीताका जन्म हुआ । ग्रियर्सन, विन्टर नीटस और गार्वने इस मतको माना किन्तु हापकिन्स और कीथने नहीं माना ।
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डा. राय चौधरीने अपने वैष्णव सम्प्रदाय के प्राचीन इतिहास में इसपर विस्तार से विचार किया है । वह घोर आङ्गिरस के शिष्य देवकी पुत्र कृष्णको भागवत धर्मका संस्थापक मानते हैं । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में वे निस्सन्देह नहीं है क्योंकि उन्होंने एक स्थान पर लिखा है- 'यदि कृष्ण केवल एक क्षत्रिय राजा थे और यदि भागवत धर्मके आधारभूत सिद्धान्त उनके द्वारा उपदिष्ट नहीं है किन्तु किसी अज्ञात व्यक्तिके द्वारा उपदिष्ट हैं तो हमें यह मानना पड़ता है कि प्राचीन भागवत अपने धर्म गुरुका नाम भूल गये । (अर्ली हि० वैष्ण; पृ० ६१ ) । अस्तु, भागवत धर्म के संस्थापक कृष्ण है या नहीं, इस विवादको छोड़
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