Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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में अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। गीता में कपिलके सांख्य शास्त्रको महत्व दिया गया है, जब कि बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिपदों में सांख्य प्रक्रियाका नाम भी नहीं देख पड़ता। हां, कठ आदि उपनिषदों में अव्यक्त महान् इत्यादि सांख्य शब्द अवश्य देखने में श्राते हैं। किन्तु गीता में सांख्य के सिद्धान्त ज्योंके त्यों नहीं लिये गये हैं । त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृतिसे व्यक्त सृष्टिकी उत्पत्ति होनेके विषयमें सांख्यके जो सिद्धान्त हैं वे गीताको भी मान्य हैं, किन्तु प्रकृति और पुरुष स्वतंत्र नहीं हैं. वे दोनों एक ही परब्रह्मके रूप हैं । इस तरह गीता में उपनिषदोंके अद्वैत मतके साथ द्वैती सांख्योंके सृष्टिउत्पत्तिक्रमका मेल पाया जाता है ।
किन्तु उपनिषदों की अपेक्षा गीताकी महत्त्वपूर्ण विशेषता तो व्यक्तोपासना या भक्ति मार्ग है, क्योंकि व्यक्त मानव देहधारी ईश्वरकी उपासना प्राचीन उपनिषदों में नहीं देख पड़ती। लोक मान्य तिलकने लिखा है - "उपनिषत्कार इस तत्त्वसे सहमत हैं कि अव्यक्त और निर्गुण परब्रह्मका आकलन होना कठिन है, इसलिये मन, आकाश, सूर्य, अग्नि, यज्ञ आदि सगुण प्रतीकों की उपासना करनी चाहिये । परन्तु उपासना के लिये प्राचीन उपनिषदों में जिन प्रतीकों का वर्णन किया गया है, उनमें मनुष्य देहधारी परमेश्वर के स्वरूपका प्रतीक नहीं बतलाया गया ( गी० २०, पृ० ५२८ )
किन्तु उपषिदोंमें वर्णित वेदान्त की दृष्टिसे वासुदेव भक्तिका मण्डन करना ही गीताके प्रतिपादनका एक विशेष भाग है। 1 इसके लिये गीताका नौवाँ अध्याय दृष्टव्य है । इसमें भगवान कहते हैं - हे अर्जुन ! अब मैं तुझे गुह्यसे भी गुह्य ज्ञान बतलाता हूँ, जिसके जान लेनेसे तू पापसे मुक्त होगा ।......इस पर
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