Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ___ १५७ विशेषता भी सुरक्षित हो। उसी आवश्यकताका आविष्कार गीतोक्त भागवत धर्म है। ___ उसमें क्षत्रिय श्रीकृष्णको भगवानका अवतार मानकर मानवतनधारी ईश्वरकी सृष्टिकी गई। और उन्हें ऐसा प्रभुत्व दिया गया जो किसी तीर्थङ्कर या बुद्धको तीनों कालोंमें भी प्राप्य नहीं। गीताके श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं। महाबीर और बुद्धकी तरह राज्य सुख छोड़कर प्रव्रज्या धारण करके भगवान बननेके लिये कुछ प्रयत्न करनेकी उन्हें आवश्यकता नहीं। तीर्थङ्कर और बुद्धने पूर्ण ज्ञान लाभ करके उपदेश दिया। किन्तु भगवान तो सदासे ही पूर्णज्ञानी हैं अतः उन्होंने बिना ही उसके उपदेश दिया। मगर वह उपदेश जनसाधारणको न देकर अपने भक्त अजुनको दिया
और वह भी युद्धस्थलमें दिया। यह इस धर्मकी अपनी विशेषता है, क्योंकि एक तो वैदिक धर्ममें संन्यास मार्गका आदर नहीं था, दूसरे जो क्षत्रिय अपने क्षत्रियबन्धु महाबीर और बुद्धके त्याग मार्गसे आकृष्ट होकर उसे अपनाते थे उन्हें रोकना भी था। तीसरे, भक्तपर भगवानको कृपाका प्रदर्शन भी करना था, चौथे सबके लिये धर्मको सुलभ रखनेके साथ ही साथ वैदिक संस्कारोंमें पली गोप्यताका भी संरक्षण करना था।
हमारा उक्त कथन कोरी कल्पना नहीं है किन्तु भारतके इतिहासज्ञों और दार्शनिकोंका भी यही मत है। दीवान बहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने लिखा है- “उस समय एक ऐसे धर्मकी
आवश्यकता थी जो ब्राह्मण धर्मके पुनर्निर्माण कालमें बौद्ध धर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिकी आवश्यकता थी।'-ऐशियंट इं०, पृ० ५२८)। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ ओझाजीने लिखा है-'बौद्ध और जैन धर्मके प्रचारसे वैदिक धर्मको बहुत हानि पहुँची।
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