Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका यह देखते ही यादव कुमारोंका नशा उतर गया और वे भाग कर द्वारिकामें आये । किसीने जाकर बल्देव और श्री कृष्णसे यह समाचार कहा। दोनों भाई द्वारिकाका विनाशकाल आया जान दौड़े दौड़े द्वीपायनकी शरणमें आये और क्षमा माँगने लगे। रोषसे क्षुब्ध द्वीपायनने केवल दो अंगुलियोंके द्वारा यह सूचित किया कि तुम दोनों शेष बचागे। उसके पश्चात् द्वारिका भस्म हो गई। बल्देव और श्रीकृष्णने लोगोंके आर्तनादसे पीड़ित होकर समुद्र के पानीसे आगको बुझानेकी चेष्टा की । किन्तु जलने तेलका ही काम किया।
द्वारिका भस्मसे शेष बचे दोनों भाई अत्यन्त व्यथित चित्तसे दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्गमें थककर श्री कृष्ण एक वृक्षके नीचे लेट गये और बलदेव पानी लेनेके लिए चले गये।
श्री कृष्णका समस्त शरीर पीताम्बरसे आछादित था और बांये घुटनेपर दक्षिण पैर रखा हुआ था। उस वनमें शिकारके लिये आये हुए जरत्कुमारकी दृष्टि उसपर पड़ी। सोते हुए श्री कृष्णको उसने हरिण समझकर अपना बाण चला दिया। बाण श्री कृष्णके पैर में लगा। बाणसे पीड़ित श्री कृष्णने जिस दिशासे बाण आया था, उस दिशाको लक्ष्यकर ऊँचे स्वरमें कहा-जिस अकारण वैरीने मेरा पैर छेदा है वह अपना नाम
और कुल बतलाये; क्योंकि अज्ञात नाम-कुलवाले मनुष्यको रणमें न मारनेकी मेरी प्रतिज्ञा है। ___ यह सुनकर जरत्कुमार ने कहा-मैंवसुदेवका पुत्र और श्रीकृष्णका भ्राता हूँ। अपने निमित्तसे श्री कृष्णकी मृत्यु जानकर बारह वर्ष से इसी वनमें भ्रमण करता रहा हूँ। आजसे पूर्व मैंने किसी मनुष्यको इस वनमें नहीं देखा, आप कौन हैं ?
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