Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है कि प्रायः इसी शंकाको दूर करनेके लिए छान्दोग्योपनिषदके भाष्यमें आचार्यने लिखा है कि 'बौद्ध यतिधर्म और सांख्य यति धर्म दोनों वेदवाह्य तथा खोटे हैं। एवं हमारा संन्यास धर्म वेदके आधारसे प्रवृत्त किया गया है. इसलिए यही सच्चा है। (गी• र०, पृ० ५००-५०१) ___ अतः जैसे शंकराचायने जैन और बौद्ध यतियोंके प्रति जनता का आदर भाव देखकर उन धर्मोको पदच्युत करनेके लिये वेदांत धर्ममें भी संन्यास मार्गको अपनाया और उसे वेदके आधारसे प्रवृत्त हुआ बतलाया, जब कि वेद संहिता और ब्राह्मणोंमें यज्ञ यागादि कर्मप्रधान धर्मका प्रतिपादन है, वैसे ही गीताके रचयिता ने भी जैन और बौद्ध धर्मों में मानव रूप देवत्वकी प्रतिष्ठा और जनताके प्रति उनका आदर भाव तथा वैदिक देवताओंकी अप्रतिष्ठा देखकर एक मानव रूपधारी परमेश्वरकी सृष्टि करना उचित समझा। गीताकी रचनासे पूर्व यमुनाके तटपर वासुदेवकी भक्ति प्रचलित थी यह पाणिनीके उल्लेखसे स्पष्ट ही है। अतः उसे ही उत्तरकालमें विष्णुका रूप देकर उक्त आवश्यकता की पूर्ति कर दी गई। और चूकि हिंसाप्रधान वैदिक यज्ञोंके प्रति जनताकी अत्यन्त वितृष्णा हो चुकी थी और उनको पुनरुज्जीवित करना शक्य नहीं था, अतः श्री कृष्णको ही वेद और यज्ञ रूप बतलाकर दव्यमय यज्ञसे ज्ञानमय यज्ञको श्रेष्ठ बतलाया।
अवतारवाद अवतारवादके सिद्धान्तको स्पष्ट रूपसे अवतरित करनेका श्रेय भी गीताको ही है। गीतामें कहा है-'जब धर्मकी हानि और अधर्मका उत्थान होता है, तब मैं जन्म लेता हूँ॥ तथा साधुओंकी रक्षाके लिये और दुष्टोंके निग्रहके लिए एवं धर्मकी स्थापनाके लिए
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