Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पादन किया है। उनका मत है कि कभी न कभी संन्यास आश्रम को स्वीकार कर समस्त सांसारिक कर्मोंको छोड़े बिना मोक्ष नहीं मिल सकता । और भगवाग श्री कृष्णके मनमें भी संन्यास मार्ग ही श्रेष्ठ है । किन्तु श्री तिलकका मत इसके विरुद्ध है । वे लिखते हे-'यह मत वैदिक धर्ममें पहले पहल उपनिषत्कारों तथा सांख्यवादियों द्वारा प्रचलित किया गया कि दुःखमय तथा निस्सार संसारसे निवृत्त हुए बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके पूर्व का धर्म प्रवृत्ति प्रधान अर्थात् कर्मकाण्डात्मक ही था। परन्तु यदि वैदिक धर्मको छोड़ अन्य धर्मों का विचार किया जाये तो यह मालूम होगा कि उनमेंसे बहुतोंने आरम्भसे ही संन्यास मार्गको स्वीकार कर लिया था । उदाहरणार्थ जैन और बौद्धधर्म पहले ही से निवृत्ति प्रधान हैं (गी० र0 पृ० ४६२ )। जैन और बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंने कापिल सांख्यके मतको स्वीकार कर इस मतका विशेष प्रचार किया कि संसारको त्याग कर संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता।......यद्यपि श्री शंकराचार्यने जैन और बौद्धों का खण्डन किया है तथापि जैन और बौद्धोंने जिस संन्यास धर्म का विशेष प्रचार किया था उसे ही श्रौत स्मार्त संन्यास कहकर
आचार्यने कायम रखा और उन्होंने गीताका इत्यर्थ भी ऐसा निकाला कि वही संन्यास धर्म गीताका प्रतिपाद्य विषय है। परन्तु वास्तवमें गीता स्मार्त मार्गका ग्रन्थ नहीं, यद्यपि सांख्य या संन्यास मार्गसे ही गीताका प्रारम्भ हुआ है तो भी आगे सिद्धांत पक्षसे प्रवृत्तिप्रधान भागवत धर्म ही उसमें प्रतिपादित है । (गी. र० पृ० ३४२)।
सारांश यह है कि लोकमान्य तिलक गीताको कर्म योग अर्थात् प्रवृत्ति मार्गका ग्रन्थ मानते हैं, तथा शंकराचार्य आदि
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