Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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किन्तु उसके प्रत्येक भाग का अपना अपना रचना काल उसकी स्थिति देखकर निर्णित करना होगा ( हि० इं०लि०, विन्टर० भा० ९, पृ० ४७४-४७५ )।
आदि पर्व के प्रथम अध्याय में व्यास कहते हैं
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अष्टौ श्लोक सहस्राणि ष्टौ श्लोक शतानि च । श्रहं वेद्मि शुको वेत्ति सञ्जयो वेति वा न वा ॥८॥
अर्थात् महाभारत के मूल श्लोक आठ हजार आठ सौ थे उन थोड़ेसे श्लोकोंसे ही महाभारत एक लाख श्लोकोंका बन गया। इसमें मूल श्लोक कौनसे हैं और प्रक्षिप्त कौनसे हैं यह खोज निकालना शक्य है ।
पुरातत्वविदोंका मत है कि प्राचीन भारतका साहित्यिक कृतित्व बहुत कुछ ब्राह्मण वर्गके हाथोंमें रहा है । उन्होंने अथर्व वेद के प्राचीन लोक प्रचलित गीतोंका ब्राह्मणी करण किया और उपनिषदोंके दर्शनको, जो निश्चय हो उनके लिये एक दम अपरिचित और विरोधी जैसा था अपने बुद्धि चातुर्यसे किस प्रकार मिश्रित किया, यह तात्त्विकोंसे छिपा नहीं है । यही बात महाभारतके सम्बन्ध में भी जाननी चाहिये । जो वीर गाथा मूल में विशुद्ध सार्वलौकिक थी, उसे उन्होंने धीरे-धीरे अपने रूपमें परिवर्तित कर लिया । इसीसे महाभारत में देवी देवताओंकी ऐसी कहानियाँ पाई जाती हैं जो मूलतः ब्राह्मण हैं । तथा प्रबोधक भागों में ब्राह्मण दर्शन, ब्राह्मण आचार और ब्राह्मण धर्मका विशेष दर्शन मिलता है । उन्होंने लोक सम्मत आख्यानको अपने सिद्धान्तोंके प्रचारका माध्यम बनाया और उसके द्वारा
१ - हि० इं० लि० (विन्टर ० ), भा० १, पृ० १२२ और २३१ ।
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