Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
दिया । किन्तु यह संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि अनेक विरोधोंके रहते हुए भी गीताका अन्तः वातावरण शुद्ध एकेश्वरवादी है ( Thiestic ) । गीताका ईश्वर एक व्यक्ति है जो मानव रूपसे अपने भक्तोंकी भक्ति चाहता है ।
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मूल भारत ग्रन्थ में भगवद्गीता के अस्तित्वको लेकर अधिकांश खोजी विद्वानोंको सन्देह है । डा० विन्टर नीटस्का कहना है कि यह कल्पना करना कठिन है कि कोई पौराणिक आख्यानका रचयिता कवि युद्ध भूमिमें अपने वीरनायकोंके बीच में ६५० श्लोकोंके द्वारा दार्शनिक विचार विनिमय करायेगा। यह संभव है कि कविने मूल में अजुन और सारथि कृष्णके बीच में थोड़ीसी बातचीत कराई हो और आगे चलकर उसीको आजका रूप मिल गया हो । ( विन्ट० हि० इ० लि० भा० १, पृ० ४३० ) भगवद्गीताको भागवतोंका मूल ग्रन्थ माना जाता है । इसमें साख्य मतकी भूमिकापर निष्काम कर्मके साथ भक्ति मार्गकी शिक्षा दी गई है।
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डा० रा० गो० भण्डारकर गीताको ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी बाकी नहीं मानते (वै० शै० पृ० १३ ) । अन्य भी कुछ विद्वानों का ऐसा ही मत है । (हि० इ० लि० (विन्टर०) भा० १, पृ० ४३८ पा० टि० )
ईसाकी सातवीं शतीके विद्वान् बाण कविको महाभारत के अंश रूप में गीता ज्ञात थी । तथा उपनिषद् वेदान्त सूत्र और गीता यह त्रयी शंकराचार्य के दर्शनकी आधार है । अतः इस बात की बहुत कुछ संभावना है कि ईस्वी सनकी आरम्भिक शताब्दियों में गीताको वर्तमान रूप प्राप्त हुआ हो ।
गीता अवलोकनसे मालूम होता है कि कुरु क्षेत्रके मैदान में जब कौरव र पाण्डवोंकी सेनाएं आमने सामने डट गई तब
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