Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सामने विष्णु एक हीन देवता है । इन्द्र उसे आज्ञा देता है। ऋग (१-२२-१६) में विष्णुको इन्द्रका योग्य सखा अवश्य लिखा है।
किन्तु उत्तर कालीन वैदिक साहित्यमें विष्णुकी स्थिति पहलेसे अधिक प्रमुख हो जाती है। शतपथ ब्राह्मणमें विष्णुके तीन पैरसे ब्रह्मांडको आक्रांत करनेकी कथा विस्तारसे दी गयी है। उसमें विष्णुको यज्ञ पुरुष बतलाया है। उसके चौदहवें काण्डमें देवोंमें विवाद होनेकी एक कथा दी है, जिसमें विष्णुकी विजय हुई। तबसे विष्णु सब देवोंमें उत्तम कहे जाने लगे। ____ इस तरह ब्राह्मणकालमें विष्णुने प्रमुख स्थान प्राप्त किया । किन्तु फिर भी उसकी यह स्थिति सर्वदा निर्बाध नहीं थी। क्योंकि एतरेय ब्राह्मण (१-३०) में उसे 'देवानां द्वारपः' देवताओंका द्वारपाल लिखा है। फिर भी ब्राह्मणकालमें विष्णुको जो प्राधान्य मिला वह आगे बढ़ता ही गया और बढ़ते-बढ़ते महाभारतकालमें वह सर्वशक्ति सम्पन्न देवताके रूपमें पूजा जाने लगा। विष्णुके नामपर प्रचलित साम्प्रदायिक नाम 'वैष्णव' भी प्रथमबार महाभारत' में ही मिलता है किन्तु 'परम वैष्णव' उपाधिका प्रचलन ईसाकी पाँचवीं शतीके लगभग हुआ। (अर्ली हि० वैष्ण, पृ० १८)।
महाभारतके भीष्म पर्व और शान्ति पर्वमें भागवत, सात्वत, एकान्तिक या पञ्चरात्र धर्मका उल्लेख मिलता है। महाभारतके अनुसार नारद ने इस धर्मको स्वयं नारायणसे प्राप्त किया था।
१--अष्टादश पुराणानां श्रवणात् यत्फलं भवेत् ।
तत्फलं समवाप्नोति वैष्णवो नात्र संशयः ॥
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