Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पुत्रोंके सम्बन्धमें एक ऐसी अनुश्र ति चली आती थी जिसे लेकर हिन्दू और जैन पुराणकारों तकमें प्रायः मतभेद नहीं था।
यह कहा जा सकता है कि हिन्दू पुराणों में वर्णित ऋषभदेवके वर्णनको ही पुराणकारोंने अपना लिया। किन्तु विचार करनेपर यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता। यह पहले लिख आये हैं कि ऋषभदेवके प्रथम जैन तीर्थङ्कर होनेकी मान्यता ईस्वी सन से भी पूर्व में प्रवर्तित थी, इतना ही नहीं, ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा जैन लोग करते थे यह बात खारवेलके शिलालेख तथा मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे प्रमाणित हो चुकी है। तथा हिन्दू पुराणोंसे भी पूर्वके जैन ग्रन्थोंमें ऋषभदेवका चरित वर्णित है।
इसके सिवाय श्रीभागवतमें ऋषभदेवका वर्णन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि वातरशन ( नग्न ) श्रमणोंके धर्मका उपदेश करनेके लिये उनका जन्म हुआ । यथा
वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ॥ २० ॥ स्क० ५, अ०३ । ___ उक्त नग्न श्रमणोंके धर्मसे स्पष्ट ही जैन धर्मका अभिप्राय है क्योंकि आगे भागवत्कारने ऋषभदेवके उपदेशसे ही आर्हत धर्म ( जैन धर्मका पुराना नाम ) की उत्पत्ति बतलाई है। उसमें लिखा है
'भगवान ऋषभके आचरणोंका वृत्तान्त सुनकर कोंक, बैंक, कुटक देशोंका अर्हत् नाम राजा भी वैसे ही आचरण करने लगेगा और वह मति मन्द भवितव्यतासे मोहित होकर कलि.
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