Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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'प्रवर्ग्य' कर्मोंका अनुष्ठान होने लगा तब अपने भक्त नाभिकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये भक्त परवश एवं स्वतंत्र भगवान् विष्णुजी प्रकट हुए । ऋत्विज, सदस्य और यजमान सभी उस मूर्तिको देखकर आनन्दसे उठ खड़े हुए और सम्मान पूर्वक सिर झुकाकर पूजन करके कहने लगे ( इसके आगे विष्णुकी प्रशंसा है ) - भगवन् यह राजर्षि नाभि पुत्रको ही परमार्थ मानकर आपसे आपके ही समान गुण शीलवाला पुत्र माँगते हैं ।। भरत खडके स्वामी राजा नाभि जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं. उन ऋत्विज ऋषियों ने इस प्रकार स्तुति करके भगवानके चरणों में प्रणाम किया। तब भगवान् बोले- 'हे ऋषिगण ! तुम्हारे वाक्य कभी निष्फल नहीं हो सकते । किन्तु तुमने हमसे जो वर मांगा है, वह बड़ा ही दुर्लभ है । राजा नाभिके मेरे ही समान स्वभाव और गुणवाला पुत्र उत्पन्न हो, यही तो तुम्हारी प्रार्थना है ? यह तो बहुत ही दुर्लभ है। मेरे समान तो कोई नहीं है, मैं अद्वितीय हूँ, मैं ही अपने सदृश हूँ । अस्तु, कुछ भी हो, ब्राह्मणोंका वाक्य मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि द्विजों में देवतुल्य पूजनीय विद्वान् ब्राह्मण मेरा ही मुख है । अच्छा है, मैं ही अपनी अकलासे नाभिके यहाँ जन्म लूँगा; क्योंकि मुझको मेरे समान कोई दूसरा नहीं देख पड़ता ।" यह कह कर भगवान अन्तर्धान हो गये। तब परमहंस, तपस्वी, ज्ञानी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी लोगों को धर्म दिखानेके लिये नाभि राजाके अन्तःपुरमें उनकी -रानी मेरुदेवीके गर्भ से भगवान्ने सत्त्वमूर्ति ऋषभदेव जी के रूपसे जन्म लिया ( भा० पु०, स्क० ५, ० ३ ) ।
उक्त विवरणसे स्पष्ट है कि ऋषभदेव जीकी उत्पत्तिको भी यज्ञ और ब्राह्मणोंकी कृपाका फल तथा विष्णुका प्रसाद बतलाने के साथ-साथ विष्णुको सर्वोपरि देवता ठहराना ही उक्त कथनका
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