Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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वाली सजधज और मण्डलीके साथ नहीं आता । अब तो यह ' एवं विद्वान् व्रात्य : ' है जिसके ज्ञानने अब पुराने कर्मकाण्डकी जगह ले ली है। प्राचीन भारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है जिसपर यह बात घट सकती है । वह है पारिव्राजक योगी या संन्यासी । योगियों-संन्यासियोंका सबसे पुराना नमूना व्रात्य है ।'
उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि व्रात्य भ्रमणशील साधु थे 1 अतः प्राचीन व्रात्य लोग यदि उत्तर काल में 'वज्जि' कहे जाने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं है ।
ऊपर लिखा है कि व्रात्य शब्द व्रत या व्रातसे बना है । अथर्व का० १५ के सूक्त २-७ में विश्वपुरुष ब्रात्यके भ्रमण और कर्म - काडका वर्णन है । उनमें प्रधान महाव्रत है जैनों में आज भी साधुओं के व्रतोंमें महाव्रत ही प्रधान हैं ।
उक्त काण्डके पहले सूक्तमें आदि देवको व्रात्य कहा है । तथा तीसरे सूक्तमें विश्व व्रात्य पूरे एक वर्ष सीधा खड़ा रहता है । जैनोंमें ऋषभ देवको आदिदेव कहा जाता है क्योंकि वह प्रथम तीर्थङ्कर थे । तथा प्रव्रज्या ग्रहण करनेके पश्चात् छै मास तक वे कायोत्सर्ग रूप में सीधे खड़े रहे थे और छै मास तक आहार के लिये भटकते फिरे थे । इस तरह एक वर्ष उन्हें एक तरह से खड़ा ही रहना पड़ा था । हम नहीं कह सकते कि इस सबमें कितना तथ्य है, किन्तु इतना अवश्य कह सकते हैं, कि अथर्ववेदका १५वां काण्ड आज भी वैदिकवाङ्मयकी सबसे कठिन पहेली बना हुआ है । और व्रात्योंकी स्थितिका नये सिरे से अध्ययन होने की आवश्यकता है ।
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