Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका
हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव ऋग्वेद मं० १०, सू. १२१ की पहली ऋचा इस प्रकार है --- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक श्रासीत । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥
इसमें बतलाया है कि पहले हिरयगर्भ हुए। वह प्राणीमात्रके एक स्वामी थे । उन्होंने आकाश सहित पृथ्वीका धारण किया। हम हविके द्वारा किस देवकी आराधना करें। सायणने इसका भाष्य इस प्रकार किया है
'हिरण्यगर्भः हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूतः प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः । तथा च तैत्तिरीयकं-प्रजापति हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपाय ( ते० सं० ५-५-१-२)। यद्वा हिरण्यमयोऽअण्डो गर्भवद्यस्योदरे वर्तते सोऽसौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ उच्यते । अग्रे प्रपञ्चत्यत्त प्राक् समवर्तत् मायाध्यक्षात् सिसृक्षोः परमात्मनः साकाशात् समजायत ।...."सर्वस्य जगतः परीश्वर आसीत् "'
तैत्तिरीय संहिता में हिरण्यगर्भका अर्थ प्रजापति किया है। अतः प्राचार्य सायण उसीके अनुसार हिरण्यगर्भकी व्युत्पति' करते हैं-'हिरण्यमय अण्डेका गर्भभूत' अथवा जिसके उदरमें हिरण्यमय अण्डा गर्भकी तरह रहता है। वह हिरण्यगर्भ प्रपञ्चकी उत्पत्तिसे पहले सृष्टिरचनाके इच्छुक परमात्मासे उत्पन्न हुआ ।' ___ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सायण पन्द्रहवीं विक्रमशतीके विद्वान हैं, उस समय तक प्रजापति ब्रह्मा बन चुके थे और सृष्टि रचनाकी पौराणिक प्रक्रिया प्रचलित हो चुकी थी।
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