Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१०६
ऋषभो वा पशुनामधिपति (तां० ब्रा० १४-२-५) ऋषभो वा पशूनां प्रजापतिः ( शत० ब्रा०५, २-५-१७) 'पशु' शब्द का अर्थ शत० ब्रा० ( ६-२-१-२) में इस प्रकार किया है -(अग्निः ) एतान् पञ्च पशूनपश्यत् । पुरुषमव गामविमजम् । यदपश्यत्तस्मादेते पशवः।
अर्थात् अग्निने (प्रजापतिने ) पुरुष, अश्व, गौ, भेड़, बकरी इन पाँच पशुओंको देखा। (संस्कृतमें 'देखना' अर्थवाली दृश धातुके स्थानमें 'पश्य' आदेश होता है) अतः क्योंकि इनको देखा, इसलिये ये पशु कहलाये। ब्राह्मणग्रन्थों में पशु शब्दके अर्थ इस प्रकार पाये जाते हैंश्रीवै पशवः। ( तां० ब्रा०, ५३-२-२) पशवो यशः। (शत० ब्रा० १, ८-१-३८) शान्तिः पशवः । ( तां० ४-५-१८) पशवो वैरायः । ( शत० ब्रा० ३, ३-१-८)
आत्मा वै पशुः ( कौत्स्य ब्रा० १२-७)
अर्थात् श्री, यश, शान्तिः, धन, आत्मा आदि अनेक अर्थों में पशु शब्दका व्यवहार वैदिक साहित्यमें हुआ है। अतः पशुपति शब्दका अर्थ हुआ-प्रजा, श्री, यश, धन आत्मा आदिका स्वामी । और ऋषभ पशुपति हैं।
यात्रा विवरणमें पाशुपतोंका निर्देश किया है। वह लिखता है कि कुछ स्थानों में महेश्वर के मन्दिर हैं जहाँ पाशुपत लोग पूजा करते हैं । बनारसमें उसने दस हजारके लगभग अनुयायी पाये जो महेश्वरको पूजते थे, अपने शरीरपर भभूत रमाते थे, नंगे रहते थे, अपने वालोंको बाँधे रहते थे । ( वै० शै०, पृ० १६७ )।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org