Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
१०७ प्रतिकृतिका निर्देश किया है, शिवलिंगका नहीं। तथा रान्त्सांग के यात्राविवरणमें महादेवकी मूर्तिका तो वर्णन मिलता है, किन्तु लिंग पूजाका वर्णन नहीं मिलता । डा०भण्डारकरने लिखा है कि Wema-kadppises के समयमें भी लिंग पूजा अज्ञात थी ऐसा लगता है, क्योंकि उसके सिक्केके दूसरी ओर शिवकी मानव-मति अंकित है जिसके हाथमें त्रिशूल है तथा बैलका चिन्ह बना है। (शै-वै०, पृ० १६४) ।
ऋषभ और शिव मोहेजोदड़ोसे प्राप्त नग्न योगीकी मूर्तिको श्रीरामप्रसाद चन्दाने संभावना रूपमें ऋषभदेवकी मूर्ति बतलाया था और इधर हड़प्पासे प्राप्त नग्न कबन्धको श्रीरामचन्द्रन्ने ऋषभदेवकी मूर्ति बतलाया है। दोनों स्थानोंसे शिवकी भी प्रतिकृतियाँ मिली हैं। और उसपर डा० राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वान्ने अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि यदि उक्त मूर्तियां ऋषभका ही पूर्वरूप है तो शैवधर्मकी तरह जैन धर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके वीचकी खोई हुई कड़ीका भी एक उभय साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' __ डा० मुकर्जी के 'उभय साधारण सांस्कृतिक परम्परा' शब्द बड़े महत्त्वके हैं। 'उभय' शब्दसे यदि हम जैन धर्मके प्रवर्तक ऋषभ और शैव धर्मके आधार शिवको लें तो हमें उन दोनोंके बीचमें एक साधारण सांस्कृतिक परम्पराका रूप दृष्टिगोचर होता है और उसपरसे हमें यह कल्पना होती है कि दोनोंका मूल एक तो नहीं है ? अथवा एक ही मूल पुरुष दो परम्पराओंमें दो
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