Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका महिमा युक्त जैन सन्तकी प्रतिमा कहें तो इसमें कुछ भी असत्य न होगा । यद्यपि इसके निर्माणकाल २४००-२००० ईसा पूर्वके प्रति कुछ पुरातत्त्वज्ञों द्वारा सन्देह प्रकट किया गया है परन्तु इसकी स्थापत्य शैलीमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इसे मोहेञ्जोदड़ोकी मृण्मय मूर्तिकाओं एवं वहाँकी उत्कीर्ण मोहरों पर अंकित विम्बोंसे पृथक् कर सके।'
इस प्रकार मोहेजोदड़ोंकी तरह हड़प्पासे प्राप्त मूर्तियाँ भी नग्न हैं जिनमेंसे एक शिवकी मूर्ति मानी गई है और दूसरीको श्री रामचन्द्रन जैसे पुरातत्त्वविद् ऋषभ तीर्थङ्करकी मूति मानते हैं। उन्होंने भी अपने इस लेखमें 'शिश्नदेवाः' का अर्थ नंगे देवता किया है। उन्होने लिखा है-'जब हम ऋग्वेदके काल की ओर देखते हैं तो हमें पता लगता है कि ऋग्वेद दो सूक्तोंमें 'शिश्न' शब्द द्वारा नग्न देवताओंकी ओर संकेत करता है। इन सूक्तों में शिश्न देवों से अर्थात् नग्नदेवोसे यज्ञोंकी सुरक्षाके लिये इन्द्रका आह्वान किया गया है।' __इस तरह सिन्धु सभ्यतासे प्राप्त नग्न मूर्तियोंके प्रकाशमें ऋग्बेदके शिश्नदेवाःका अर्थ शिश्नयुत देव अर्थात् नंगे देव करना ही उचित जान पड़ता है। जो उनके उपासक थे वे भी उससे लिए जा सकते हैं। यह अर्थ लिंग पूजकोंमें और लिंगयुत नग्न देवोंके पूजकोंमें समानरूपसे घटित हो जाता है। । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अपने चिन्ह लिंग पूजाको लिए हुए शिव निश्चय ही अन-आर्य देवता है। बाद में आर्यो के द्वारा उसे अपने देवताओंमें सम्मिलित कर लिया गया। किन्तु लिंग पूजाका प्रचलन आर्यों में बहुत कालके बाद हुआ है क्योंकि पतञ्जलिने अपने भाष्यमें पूजाके लिये शिवकी
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