Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हमारे यज्ञमें विघ्न न डालें। दूसरेमें ( १०-६९-३) इन्द्रके सम्बन्धमें कहा गया है कि उसने शिश्नदेवोंको चालाकीसे मारकर शतद्वारों वाले दुर्गकी निधि पर कब्जा कर लिया। इससे स्पष्ट है कि शिश्नदेव वैदिक नहीं थे। । प्रायः सभी विद्वानोंने 'शिश्नदेवाः' का अर्थ शिनको देवता माननेवाले अर्थात् लिंगपूजक किया है। किन्तु इसका एक दूसरा अर्थ भी होता है-शिश्नयुत देवताको माननेवाले, अर्थात् जो नंगे देवताओंको पूजते हैं । सिन्धुघाटोसे प्राप्त मूर्तियोंके प्रकाशमें यही अर्थ ठीक प्रमाणित होता है। मोहेजोदडोंसे प्राप्त योगीकी मूर्ति तो नग्न है ही, किन्तु जिसे शिवकी मूर्ति माना जाता है उसमें भी लिंग अंकित है। इस मूर्ति में तीन देवताओंको एकत्रित करनेका प्रयत्न किया गया है । इससे यह अनुमान किया गया है कि मोहेजोदड़ोंके निवासियोंमें लिंग सहित शिवजीको पूजनेकी प्रथा' थी। ___ उक्त शिवमूर्तिके सम्बन्धमें श्रीसतीशचन्द कालाने लिखा है'सरजान मार्शलको इस मुद्रामें शिवमें लिंग नहीं दीख पड़ा। किन्तु ध्यानसे देखनेसे पता चलता है कि प्राकृतिके साथ उर्ध्वलिंग भी है। संस्कृत साहित्यकी अनेक पुस्तकोंमें लिखा है कि शिवमूर्तियोंमें ऊर्ध्वलिंगका होना आवश्यक है। ऊर्ध्वलिंग सहित शिवजीकी अनेक मूर्तियां भारतके पूर्वीभाग विहार, उड़ीसा, तथा बंगालमें मिलती हैं। लिंग सहित शिव जीको पूजने की प्रथा शायद मोहेंजोदड़ो निवासियोंको ज्ञात थी' (मो० तथा सि०, पृ० १११ )। ___ मोहेजोदड़ोसे प्राप्त सील नं० ३ से ५ तकमें कायोत्सर्गमें अंकित आकृतियां भी, जिन्हें श्री चन्दा ऋषभका पूर्वरूप
१ इण्डियन कल्चर, अप्रैल १६३६, पृ० ७६७ ।
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