Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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तरह के योगी होते थे । ब्राह्मण परम्परामें तो योगका प्रवेश बहुत बाद में हुआ है ।
दोनों सभ्यताओं में भेद होते हुए भी ऋग्वैदिककालीन आर्य सिन्धु सभ्यता से परिचित थे ऐसा मत डा० रा० मुकर्जीका है । उनका कहना है कि 'ऋग्वेदकी सामग्री के सम्यक् पर्यालोचनसे यह ज्ञात होगा कि उसमें जो अनार्य लोगोंके और उनकी सभ्यता के उद्धरण हैं, वे सिन्धुके निवासी जनोंपर लागू हो सकते हैं ........ अनार्यों अथवा भारतीय आदिम निवासियोंके बारेमें ऋग्वेद में भी बहुत सी सामग्री है । आर्येतरोंको उसमें दास, दस्यु या असुर कहा गया है ।.. ..इसमें अनार्यसभ्यताओंकी कुछ सार्थक विशेषताओं का उल्लेख है जो सिन्धु सभ्यताकी सूचक और उसके सदृश हैं। उदाहरण के लिए आर्येतर लोगोंको अपरिचित भाषा बोलनेवाला (मृद्धवाक् ), वैदिक कर्मोंसे रहित ( अकर्मन् ) वैदिक देवोंके न माननेवाला ( अदेवयु), श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित ( ब्रह्मन् ), यज्ञोंसे शून्य ( अयज्वन् ), एवं व्रतोंसे रहित ( व्रत ) कहा गया है वे केवल अपने नियमोका पालन करनेवाले ( अपव्रत ) थे इन नकारात्मक संकेतों के अतिरिक्त एक निश्चयात्मक सूचना अनार्योके विषय में यह भी दी गई है कि वे लिंगपूजक थे ( शिश्नदेवाः, ऋ० ७१०११५;
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१० ||३| ) | ( हि० स० पृ० ३२ : ३ ) । ऋग्वेद के उक्त निषेधात्मक विशेषण जो अनार्यो के लिए प्रयुक्त हुए हैं - वे सब यही Learn हैं कि लोग वैदिक सभ्यता के अनुयायी नहीं थे ।
शिश्न देवा:
ऋग्वेदके दो सूक्तों में 'शिश्नदेवा:' शब्द आया है। इसमें से प्रथममें ( ७-२१-५ ) इन्द्रदेव से प्रार्थना की गई है कि शिश्नदेव
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