Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और सीसेका उपयोग होता था। सोने-चांदी और हाथी दांत आदिके जेवर बनते थे। पत्थरका उपयोग इतनी स्वतंत्रतासे किया जाता था कि प्राचीन वास्तुशास्त्रवेत्ता सिन्धुघाटीके प्राचीन निवासियोंको पत्थर और धातुकालके बीचके परिवर्तनकालका मानते हैं। घरेलु जानवरोंमें हाथी, ऊंट, भेड़, सुअर, कुत्ता, भैसा, और ककुद (पीठ पर उठा हुआ भागवाले मवेशी) थे। जौं, गेहूं और कपासकी खेती होती थी। कातना और बुनना उन्नत दशा
में था।
___इस प्रकार द्रविड़ लोगोंकी अपनी एक पृथक् सभ्यता थी। वे शवोंको पाषाणकी बनी कब्रोंमें रख देते थे। शवों अथवा उनकी अस्थियोंसे युक्त मिट्टीके पात्र मेसोपोटामिया, बेवीलोनिया, परसिया, बलुचिस्तान, सिन्ध और दक्षिण भारतमें मिले हैं। जब उन द्रविड़ोंका सम्पर्क वैदिक आर्योसे हुआ, जो अपने मुर्दोको जलाते थे, तो द्रविड़ोंने भी अपने मुर्दोको जलाना शुरु कर दिया, किन्तु मिट्टीके पात्रमें कुछ अस्थियोंको रखकर भूमिमें गाढ़नेकी
अपनी प्राचीन प्रथाको जारी रखा। ____ क्या द्रविड़ लोग मुर्दोको इस लिये पृथ्वीमें गाढ़ देते थे कि लौटने पर आत्माको पुनः वहीं शरीर मिल सके ? क्या यही पुनर्जन्मका सिद्धान्त है ? ___ किन्तु मोहेज्जदड़ों या हरप्पासे एक भी ऐसी वस्तु प्राप्त नहीं हुई, जिसे स्पष्ट रूपसे धार्मिक महत्त्व दिया जा सके। वहाँ ऐसी कोई इमारत नहीं मिली जिसे स्पष्ट रूपसे मन्दिर कहा जा सके। आज तक इस सम्बन्धमें जो कुछ विश्लेषण किया गया है वह केवल अनुमान और कल्पनाके आधारपर ही किया गया है।
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