Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण हुए संन्यासमार्गको निराशावाद कहा है। किन्हींका कहना है कि पुनर्जन्मके सिद्धान्तने निराशावादको जन्म दिया (कै.हि०पृ०१४४।
और किन्हींका कहना है कि जब आर्यलोग गंगाकी घाटीमें आकर बसे तो पूरबकी गर्मी उनसे न सही गई फलतः इस निराशावादी संन्यासाश्रमका जन्म हुआ।
जो पुनर्जन्मके सिद्धान्तको तथोक्त निराशावादका जनक मानते हैं वही यह भी लिखते हैं कि-'इस सिद्धान्तकी असाधारण सफलता बतलाती है कि यह सिद्धान्त भारतीय जनताकी आत्मा के साथ एकलय था और उसका जो संभाव्य परिणाम हो सकता था वही हुआ, ब्राह्मण कालके अन्त तक आर्य प्रभाव मुरझा गया और बुद्धिवादी वर्गोंका यथार्थ भारतीय चरित्र निश्चित रूपसे साकार हो गया ( कै• हि०, जि० १, पृ० १४४)। ___ उक्त शब्दोंसे ही स्पष्ट है कि पुनर्जन्मका सिद्धान्त भारतीयोंके लिए कोई नया नहीं था-वह तो उनकी आत्माके साथ सम्बद्ध था, उसके प्रकाशमें आते ही आर्यप्रभाव जाता रहा
और भारतीय आत्माका यथार्थ रूप चमक उठा। अतः जिसे विदेशी विद्वान भारतीय आत्माके यथार्थ रूपको न पहचान सकने के कारण निराशावाद कहते हैं, वास्तवमें वह निराशावाद ही भारतकी सच्ची आत्मा रहा है।
जिनका कहना है कि गंगाघाटीकी असह्य गर्मी ने इस तथोक्त निराशावादको जन्म दिया, वे उनमेंसे हैं जो समस्त भारतीय
आचार-विचारोंका मूल वैदिक साहित्यको ही मानते हैं। किन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। यह हम लिख आये हैं।
दूसरे, वैदिक काल में ही हम मुनियोंसे मिलते हैं, जो ब्राह्मणों से भिन्न थे। तथा नग्न रहते थे। वै. इं० (मुनिशब्द ) में ठीक
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