Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रमणोंकी ओर लक्ष्य दिया। श्रमणोंके सिवाय तापसोंका भी उल्लेख याज्ञवल्क्य ने किया है। इस कालमें विभिन्न विचारक संस्थाएँ थी, जिन्हें स्थूल रूपसे श्रमणों और ब्राह्मणों तथा तापसों और परिव्राजकोंमें विभाजित किया जा सकता है।
श्रमण परम्परा ___भारतवर्षके धार्मिक इतिहासमें हमें दो विभिन्न परम्पराओंके दर्शन होते हैं। उनमें एक परम्परा ब्राह्मणोंकी है और दूसरी परम्परा श्रमणोंकी है। भारतवर्षका क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीरके कालसे आरम्भ होता है। उस कालसे लेकर इन दोनों परम्पराओंका पृथक्त्व बराबर लक्षित होता हैं। . 'सिकन्दरके समकालीन यूनानी लेखकों ने साधुओंकी दो श्रेणियोंका निर्देश किया है-एक श्रमण और एक ब्राह्मण । अशोकके शिलालेखोंमें श्रमणों और ब्राह्मणोंका पृथक पृथक निर्देश है। पतञ्जलिने अपने महाभाष्य (सू०२-४-१२) में श्रमण और ब्राह्मणमें शाश्वतिक विरोध बतलाया है।
श्वे० जैन आगमोंमें श्रमण पाँच प्रकारके बतलाये हैंनिम्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । जैन साधु निग्रन्थ श्रमण, बौद्ध साधु शाक्य श्रमण, जटाधारी बनवासी तापस, लाल वस्त्रधारी साधु गैरूक और गोशालकके अनुयायी साधु आजीवक कहें जाते हैं । ( अभि० रा०, 'श्रमण' शब्द )।
बाल्मीकि रामायणमें (सर्ग १८ पृ० २८) ब्राह्मण, श्रमण और तापसोंका पृथक पृथक उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि तापस लोग ब्राह्मणोंसे भिन्न थे। श्रमणोंकी तरह ही तापस और परिव्राजक भी प्राचीन हैं। १. ई० पा०, पृ० ३८३ ।
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