Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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ही परिलक्षित के इतिहास हा काल-इन ह और उसके
विदिक पञ्चान का दर्शन के इतिहा। इसीसे प्राटीमें प्रविष्ट हो
प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
८७ लक्षित नहीं होता, किन्तु सत्य तक पहुँचनेके उपायोंके परिवर्तनमें भी लक्षित होता है।' (हि० रि० ई० वे० पृ० ३२) ___ उक्त सभी तत्त्व सिन्धुघाटीसे गंगाघाटीमें प्रविष्ट होनेके बादसे ही परिलक्षित होते हैं। इसीसे प्रो० बरु आने अपने बुद्धपूर्व भारतीय दर्शनके इतिहासमें वैदिक कालको, वैदिक काल, वैदिक पश्चात् काल और न्यू वैदिक काल-इन तीन कालोंमें विभाजित करके ऋग्वेद कालको वैदिक काल कहा है और उसके पश्चात्से वैदिक पश्चात् कालका प्रारम्भ माना है।
यद्यपि ऋग्वेदके दसवें मण्डलमें कुछ दार्शनिक विचारोंका आभास है, किन्तु उसमें चार वर्णों का निर्देश आदि कुछ ऐसी बातें भी पाई जाती हैं, जिनके कारण उस मण्डलको बादकी रचना माना जाता है। तथा यद्यपि ऋग्वेदकी रचना सिन्धुघाटी में हुई तथापि उसका दसवाँ मण्डल यमुनाकी घाटीमें रचा गया, ऐसा विद्वानोंका मत है। (रि० लि० ई०, पृ० १५, कै. हि० जि० १, पृ०६३ )। ___ इसी दसवें मण्डलमें प्रजापति परमेष्ठी, हिरण्यगर्भ और वातरशन (नग्न ) मुनियोंका उल्लेख है, जिनकी चर्चा हम आगेके प्रकरणमें करेंगे। प्रो० बरुआने वैदिक पश्चात् काल और न्यू वैदिक कालके बीचमें याज्ञवल्क्यको सीमाचिन्ह माना है। अर्थात् याज्ञवल्क्यके साथ वैदिक पश्चात्कालका अन्त और न्यू वैदिक कालका आरम्भ होता है। शतप० ब्रा० में श्वेत केतुको याज्ञवल्क्यका समकालीन बतलाया है। प्रो० बरुआके मतानुसार (हि. प्रो. इं० फि० पृ० १६१) भारतीय धर्मोंके इतिहासमें इस कालको श्रमण ब्राह्मणकाल संज्ञा दी जा सकती है। वैदिकपश्चात्कालके विचारकोंमें याज्ञवल्क्य ही प्रथम विचारक हैं जिन्होंने
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