Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण श्वे. जै० आगमोंमें आठ प्रकारके ब्राह्मण परिव्राजक और आठ प्रकारके क्षत्रिय परिव्राजक बतलाये हैं। ( अभि० रा०, 'परिव्राजक' शब्द )। अगुत्तर (४-३५) में भी परिव्राजकोंके दो भेद किये हैं ब्राह्मण और एक अन्नतित्थिय (अब्राह्मण )। साधुओंमें ब्राह्मण और क्षत्रियका यह भेद उल्लेखनीय है। और यह ब्राह्मण और क्षत्रियके उस पारस्परिक भेदको बतलाता है जो न केवल वर्णगत था किन्तु विचारगत और उच्चत्वगत भी था। । महाबीर और बुद्ध दोनोंके अनुयायी साधु श्रमण कहे जाते थे और महावीर तथा बुद्ध दोनों प्रव्रज्या ग्रहण करनेके पश्चात् महाश्रमण कहलाये थे। ये दोनों क्षत्रिय थे। दोनों वेद और ब्राह्मण परम्पराके विरोधी थे। किन्तु वैदिक संस्कृतिमें जो तत्त्व पीछेसे प्रविष्ट हुए-अात्मविद्या, पुनर्जन्म, तप, मुक्ति आदि, उन सबको दोनों मानते थे। यद्यपि बुद्ध आत्म तत्त्वके पक्षपाती नहीं थे किन्तु महावीर तो क्षत्रियोंकी आत्मविद्याके मर्मज्ञ ही नहीं किन्तु सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। उन्हें वह ज्ञान अपने पूर्वज क्षत्रिय पार्श्वनाथकी परम्परासे प्राप्त हुआ था।
यहाँ श्रमणोंकी प्राचीनताके सम्बन्धमें थोड़ा सा प्रकाश डालना उचित होगा।
बृह० उप० (४-३-२२ ) में तापसके साथ भ्रमण शब्द भी आता है। आचार्य शंकर ने श्रमणका अर्थ परिव्राजक और तापसका अर्थ वानप्रस्थ किया है। तैत्ति० आर० में भी यह शब्द जिस वाक्यमें आया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । वाक्य इस प्रकार है- 'वात रशना ह वा ऋषय श्रमणा, ऊर्ध्वमन्थिनो बभुवुः । (२-७) । वातरशन ( नग्न ) ऋषि श्रमण थे। सायणने 'उध्व
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