Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ब्राह्मणग्रन्थों तथा प्राचीनतम उपनिषदोंमें आत्मविषयक जो विचार मिलते हैं वे उक्त वैदिक विश्वाससे बहुत अधिक उन्नत हैं। उनमें आत्माको प्राणोंसे निर्मित बतलाया है। वे पाँच हैं-प्राण, वचन, चक्षु, श्रोत्र और मन । ये पाचों मिलकर यथोक्त आत्मारूप हो जाते हैं। ___ उपनिषदोंमें आया हुआ वार्तालाप उक्त स्थिति पर पूरा प्रकाश डालता है। वृहदारण्यकके तीसरे अध्यायमें विदेहराज जनककी सभामें हुए एक विवादका वर्णन है जिसमें याज्ञवल्क्यने कुरु और पाञ्चालके ब्राह्मणोंके प्रश्नोंका उत्तर दिया था। याज्ञवल्क्यका एक विपक्षी जारत्कारव आर्तभाग था। जारत्कारवने पूछा-हे याज्ञवल्क्य ! जब यह षुरुष मरता है तो उससे उसके प्राण निकलते हैं या नहीं ? याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया --- 'नहीं, वे उसी में एकत्र हो जाते हैं। ___ उसने फिर पूछा-'याज्ञवल्क्य जब यह मनुष्य मरता है, कौन उसे नहीं छोड़ता ? याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया-नाम, नाम अनन्त हैं, विश्वमें देव अनन्त हैं, उसीके द्वारा वह अनन्त लोकको जीतता है।
उसने फिर पूछा- याज्ञवल्क्य ! जब इस मत व्यक्तिकी वाणी अग्निमें, श्वास वायुमें, चक्षु सूर्यमें, मन चन्द्रमें, श्रोत्र दिशामें, शरीर पृथिवीमें, आत्मा आकाशमें, रोम औषधियोंमें, केश वनस्पति में, रुधिर और वीर्य जलमें लीन हो जाता है तब पुरुष कहाँ रहा ? ___ याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया-हे सौम्य ! हाथ मिलाओ, हमें इस प्रश्नकी चर्चा सबके सामने नहीं करनी चाहिये । हम दोनों ही इसे जानें । तब वे दोनोंअलग जाकर विचार करने लगे। उन्होंने
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