Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
८१ था। और कोई भी दैवी शक्ति ऐसी नहीं थी जो इससे उन्हें बचा सके। फिर बुरे कर्मोंका फल बुरा और अच्छे कर्मोंका फल अच्छा मिलता था। इससे नैतिकताके प्रसारको बल मिला। पहले तो वैदिक आर्योंका यह विश्वास था कि देवता और पितर अमर हैं । हम भी क्रियाकाण्डके द्वारा अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु इन दोनों सिद्धान्तोंके प्रकाशमें आनेके पश्चात् अमरत्व प्राप्त करना सुलभ नहीं रहा । उसके लिये व्यक्तिगत नैतिक जीवन को सुधारना आवश्यक था।
__संन्यास किन्तु प्रारम्भ में हम यह बात नहीं देखते; क्योंकि वैदिक ऋषि लोग गम्भीर नैतिक नहीं थे। उनकी ऋचाओं में पापको मानने वाले मनुष्यकी टोनमें भाविजीवनके लिये कोई चेतावनी नहीं है, और हो भी क्यों, जब वे पुनर्जन्मवादी नहीं थे। इसीसे प्रारम्भमें वैदिक आर्य मांसभोजी थे। वह जो खाते थे वह देवता को भेट करते थे। अतः वैदिक आर्योंके प्रचलित भोजनकी सूची यज्ञकी बलिसूचीके आधारसे संकलितकी जा सकती है। पुनर्जन्मके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेनेके बाद ही उनमें अहिंसा का सिद्धान्त रूपसे प्रवेश हुआ जान पड़ता है। (वै० इं० जि० २, पृ० १४५)
इसी तरह चार आश्रमोंकी व्यवस्था भी पीछेसे आई है। ब्राह्मणको ब्रह्मचारी और गृहस्थके रूपमें जीवन बितानेके
१-सब देवोंसे ऊंचे और समस्त सृष्टिके संचालक ईश्वर की कल्पना उन लोगोंके मस्तिष्क की उपज नहीं है, जिन्होंने पुनर्जन्मके सिद्धान्तको जन्म दिया। (रि० लि० ई० पृ० ३५)
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