Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
८३ था। हां, उपनिषत्कालमें ही यह मत पहले पहल अमलमें अवश्य आने लगा कि मोक्ष पानेके लिये ज्ञानके पश्चात् वैराग्यसे कर्मसंन्यास करना चाहिये । और इसके पश्चात् संहिता एवं ब्राह्मणों में वर्णित कर्मकाण्डको गौणत्व आ गया। इसके पहले कर्म ही प्रधान माना जाता था । उपनिषत्कालमें वैराग्ययुक्त ज्ञान अर्थात् संन्यासकी इस प्रकार बढ़ती होने लगने पर, यज्ञ याग प्रभृति कर्मोंकी ओर या चातुर्वर्ण्य धर्मकी ओर भी ज्ञानी पुरुष योंही दुर्लक्ष करने लगे और तभीसे यह समझ मन्द होने लगी कि लोकसंग्रह करना हमारा कर्तव्य है। स्मृतिप्रणेताओंने, अपने अपने ग्रन्थों में यह कहकर कि गृहस्थाश्रममें यज्ञ याग आदिश्रौत या चातुर्वर्ण्यके स्मार्त कर्म करना ही बाहिये, गृहस्थाश्रमकी बड़ाई गाई है सही, परन्तु स्मृतिकारोंके मतमें भी अन्तमें वैराग्य या संन्यास आश्रम ही श्रेष्ठ माना गया है, इस लिये उपनिषदोंके ज्ञान प्रभावसे कर्मकाण्डको जो गौणता प्राप्त हो गई थी, उसको हटानेका सामर्थ्य स्मृतिकारोंकी आश्रम व्यवस्थामें नहीं रह सकता था। ऐसी अवस्था में ज्ञान काण्ड और कर्मकाण्डमेंसे किसी को गौण न कहकर भक्तिके साथ इन दोनोंका मेल कर देनेके लिये गीताकी प्रवृत्ति हुई है। (गी० र० पृ० ३४४)
१-तै० उ० (२-१-१ ) में लिखा है-ब्रह्मज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होता है। श्वे० उ० ( ३-८) में लिखा है-मोक्ष प्राप्तिका दूसरा मार्ग नहीं । वृह० उ० (४-२२ और ३-५-१ ) में लिखा है- प्राचीन ज्ञानी पुरुषोंको पुत्र आदिकी इच्छा न थी और यह समझ कर कि जब सब लोक ही हमारा है तब हमें सन्तान किस लिये चाहिये ? वे सन्तान संपति और स्वर्ग की चाहसे निवृत्त होकर भिक्षाटन करते घूमते थे। (गी० २०, पृ० ३१२-१३)
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