Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका मिलता । शत० ब्रा० (६,-१-१-१३ ) लिखा है-आकाश वायु पर, वायु पृथ्वीपर, पृथ्वी जलपर, जल सत्यपर, सत्य यज्ञपर
और यज्ञ तपपर स्थित है। यहां तपको यज्ञ और सत्यसे भी उच्च बतलाया है। किन्तु इस कालके वैदिक साहित्यमें तपकी विविध विधियोंका वर्णन नहीं मिलता। ब्राह्मण ग्रन्थों में ही मुनि, परिव्राजक, तापस और श्रमणोंका निर्देश पाया जाता है।
अतः तप और अरण्योंके प्रति ब्राह्मणकाल तक वैदिक आर्योंकी आस्था नहीं थी और न उनके प्रति विशेष आकर्षण ही था; क्योंकि इन दोनोंका सम्बन्ध उनकी संस्कृतिसे नहीं था।
पुनर्जन्म शंकरके अद्वैतवाद तथा बौद्धदर्शनको छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन इस विषयमें साधारणतया एकमत हैं कि आत्मा एक नित्य तथा अमूर्तिक पदार्थ है। फलतः वे आत्माओंको अमर मानते हैं। किन्तु वैदिक आर्योंका विश्वास इससे सर्वथा भिन्न था। उनका विश्वास था कि मृत्युके पश्चात् भी प्राणीका जीवन लगभग उसी रूपमें चालू रहता है जिस रूपमें वह पृथिवी पर जीवित अवस्थामें था। अन्तर इतना है कि मृत्युके बाद उसकी स्थिति केवल छाया रूप है और शरीररूप होते हुए भी वह अत्यन्त सूक्ष्म होता है। मृत्युके पश्चात् का वह सूक्ष्म शरीर ही वैदिक आर्योंका आत्मा था। इससे भिन्न कोई आत्मा नामकी वस्तु नहीं थी।
वैदिक आर्योका आत्मविषयक उक्त विश्वास हिन्दुओंमें. आज भी पितरोंके रूपमें प्रचलित है, जिनके उद्देश्यसे वे श्राद्धकर्म करते हैं।
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